आम हैं, अशर्फियाँ नहीं
“अरे और लीजिये! आम भी कोई गिन के खाता है क्या? आम है, अशर्फियाँ नहीं.” फारूख शेख साब हमें अपने गुजरात के बगीचे के आम (जो बहुत ही कायदे से छीले और बराबर चौकोरों में काटे गए थे) खाने को कह रहे थे और मुझे लग रहा था जैसे मिर्ज़ा ग़ालिब कलकत्ता में हुगली किनारे बैठ कर, किसी बोर दोपहरी में अपने किसी दोस्त से बात कर रहे हों.
यह हमारी उनके साथ पहली मुलाक़ात थी. हम माने चार लोग – जिस बंडल फिल्म को उन्होंने ना जाने क्यों हाँ कह दिया था, उसका डायरेक्टर, उसके दो संवाद लेखक (मैं और राहुल पटेल), और एक प्रोड्यूसर. हम चारों का कुल जमा experience, उनके बगीचे के बहुत ही मीठे आमों से भी कम रहा होगा लेकिन उतनी इज्ज़त से कभी किसी ने हमें आम नहीं खिलाये थे. और जब मैं यह सोचने लगा कि यह ‘किसी ने’ नहीं, फारुख शेख हैं – ‘कथा’ का वो सुन्दर कमीना बाशु, ‘चश्मे बद्दूर’ का पैर से सिगरेट पकड़ने वाला सिद्धार्थ (Ultimate मिडल क्लास हीरो – थोड़ा शर्मीला, थोड़ा चतुर, थोड़ा sincere, थोड़ा पढ़ाकू, और थोड़ा male-ego से ग्रसित), ‘गरम हवा’ का छोटा बेटा ‘सिकंदर’ (जो कुछ नहीं जीतता), ‘जी मंत्री जी’ का वो बुद्धू-चालू मंत्री, और ‘गमन’ का वो ट्रेजिक हीरो जो चित्रहार में अक्सर उदास से एक गाने में भी मुस्कुराहट की कगार पर दिखता था – तो वो आम और उसके साथ की इज्ज़त बहुत बड़ी हो गयी.
अगले कुछ हफ़्तों में हम उनके घर तीन बार और हाज़िर हुए. हर बार वही सुन्दर कटे आम, और फारुख साब का खुश मिजाज़, जिसमें बहुत से पुराने किस्से और बहुत सी ज़हीन शायरी बात-बेबात निकल आती थी, हमें मिलते रहे. जितनी तमीज़ और तहज़ीब उनके सिनेमा किरदारों में २०-२५ साल पहले दिखती थी वो पूरी की पूरी अब तक मौजूद थी. उनके घर में, उनके आस पास रह के, लगता था किसी और सदी में जी रहे हैं. इत्मीनान और ज्ञान एक साथ, एक ही बन्दे में, और वो भी बंबई की इस कीचड़ से भी बदतर फिल्म इंडस्ट्री में मिलना जादू ही था.
एक दिन बात चली passion की तो उन्हें याद आया कि अपने ज़िन्दगी में पहली फिल्म शूटिंग जो उन्होंने देखी थी वो थी ‘मुग़ल-ए-आज़म’ की. वो बच्चे ही थे जब उनके पिताजी (जो बंबई में वकील हुआ करते थे) उन्हें ‘प्यार किया तो डरना क्या’ गाने की शूटिंग और शीशमहल दिखाने ले गए थे. उन्होंने थोडा उदास हो के कहा वो एक हद्द थी जिस तक हम कभी नहीं गए. फिर एक बार उन्होंने बताया कि कैसे जब अमिताभ बच्चन को पहली फिल्म की तनख्वाह मिली थी तो वो फारुख साब को ‘treat’ देने मरीन ड्राइव ले गए और दोनों ने Gaylord (जो अब भी वहीँ है) में १० रुपये का खाना खाया था. उनके इस किस्से को मैं ध्यान से सुन रहा था और इंतज़ार कर रहा था एक ठंडी आह का या एक bitterness की झलक का – लेकिन ना ये आई ना वो. Honestly, शायद उस दिन मैं थोडा disappoint भी हुआ था. फारुख शेख बचपन से हमारा खुदा था. सईं परांजपे हमारी सलीम-जावेद और मनमोहन देसाई rolled into one, और फारुख शेख हमारे बच्चन. बचपन से घर में ‘साथ साथ’ और ‘बाज़ार’ का combo-pack सुनते-सुनते और दूरदर्शन पे अनेक बार ‘कथा’ देखते-देखते वो दिलो-दिमाग में घुस गए थे. पता नहीं कहाँ से ‘आर्ट और पैरेलेल सिनेमा’ का कीड़ा लग गया था या शौक था दोस्तों को दिखाने का कि हम फ़ालतू फिल्में नहीं देखते. दिक्कत यह थी कि ज्यादातर पैरेलेल फिल्में उदास कर के छोड़ देती थीं. लेकिन जब ‘चश्मे-बद्दूर’ देखी तो लगा कि हाँ ये वाला पैरेलेल सिनेमा ज्यादा मिलता है हमारे temperament से. और इस तरह के, थोड़े हलके लेकिन फिर भी गहरे सिनेमा को फारुख शेख से हसीन brand ambassador नहीं मिल सकता था – भोलेपन और urbane-ness का ज़बरदस्त मिश्रण. ‘किसी से ना कहना’ का होटल हनीमून को होटल हनुमान में बदला देख वो subtle reaction, ‘पीछा करो’ का भयंकर वाला पागलपन, और उमराव जान का अति-ज़हीन नवाब – सब आसानी से कर सकने वाला achievable God.
इसलिए जब उस दिन देखा कि फारूख शेख को अमिताभ बच्चन से कोई गुस्सा नहीं है – ना comparison, ना ही वो हलकी सी टीस ‘वो कहाँ निकल गए, हम कहाँ रह गए’ वाली जो इस शहर में अक्सर टीवी एक्टरों को भी होती है बच्चन साब से – तो मुझे थोड़ा बुरा लगा. वैसा जब आपको किसी फिल्म में अन्याय होने के बाद भी हीरो के अन्दर गुस्सा ना देख के लगता है. लेकिन यही बात थी फारुख शेख की. उनके अन्दर बस acceptance था, और जैसा कि हमने जाना, उनकी दुनिया और बहुत सी दिशाओं में फैली हुयी थी. थियेटर, शायरी, सोशल वर्क, पढना और लिखना, खाना पकाना और खिलाना, और ना जाने कौन-कौन सी खिड़कियाँ होंगी जिनमें हमने झाँका नहीं. वही उनका सबसे बड़ा treasure और achievement था – इत्मीनान और contentment. अपने आप से, अपने career से.
फिल्म की शूटिंग के दौरान उनसे फिर २-३ बार मिलना हुआ. शूटिंग के आखिरी दिन उनसे डरते डरते नंबर माँगा और उन्होंने बड़े दिल से कहा – फोन ज़रूर करना जब कोई अच्छी स्क्रिप्ट हो.
उसके बाद मैंने २ स्क्रिप्ट लिखीं, जिनमें कुल मिलाकर ४ साल लगे. दोनों में ही फारुख शेख साब के अलावा कोई और सोचना मुश्किल था. बल्कि एक स्क्रिप्ट तो निकली ही इस वजह से थी कि मैंने सोचना शुरू किया कि अगर ये किरदार फारुख शेख साब करेंगे तो कैसा होगा. हर सीन, हर संवाद लिखते हुए वो दिमाग में रहे. यह कहना गलत नहीं होगा कि ४ साल मैं अक्सर उनके साथ रहा. २ फिल्में, जो मैंने अपने ज़ेहन में बनायीं, दोनों में वही स्टार थे. ये कहानियां मैं उनको कभी नहीं दिखा पाया. दूसरी वाली शायद अगले महीने ही दिखाता, लेकिन अगला महीना अब अगला ही रहेगा हमेशा.
उनसे आखिरी बार मुलाक़ात हुयी इस साल ‘चश्मे-बद्दूर’ की री-रिलीज़ पर. तो एक तरह से उनसे पहली मुलाक़ात (जब मैंने उन्हें बचपन में टीवी पर देखा होगा) और आखिरी मुलाक़ात दोनों एक ही फिल्म के ज़रिये हुयीं. उनको और दीप्ती नवल को एक साथ सामने से देखने का बहुत बड़ा सपना पूरा हो गया. मिहिर पंड्या की किताब (‘शहर और सिनेमा वाया दिल्ली’) उन्हें देनी थी क्योंकि उसमें ‘चश्मे बद्दूर’ पर एक बड़ा सुन्दर चैप्टर है इसलिए किताब लेकर उनके पास गया. उन्होंने कहा ‘आप घर पहुंचा दीजियेगा, यहाँ तो इधर-उधर हो जायेगी.’ मैंने उन्हें याद दिलाया कि उनकी एक बहुत ही वाहियात फिल्म के डायलौग मैंने लिखे थे. वो बोले ‘ऐसे कैसे याद आएगा यार. मैंने तो बहुत सारी वाहियात फिल्में की हैं!” मैंने कहा ‘नहीं सबसे वाहियात शायद. Accident on Hill Road.’ उसके बाद हँसते हुए उन्होंने एक बार और हाथ मिलाया.
थोड़ी देर बाद हमने बड़े परदे पर ‘चश्मे बद्दूर’ देखी. फारुख शेख और दीप्ती नवल और राकेश बेदी के साथ, एक ही हॉल में. वो दिन, उस दिन भी अद्भुत था, लेकिन अब जब फारुख साब के साथ दुबारा कभी बैठने को नहीं मिलेगा, उस दिन की याद और भारी हो जाती है. अब फारुख साब और रवि बासवानी साथ में देखेंगे जो देखना है. हम रह गए यहीं, उनकी उस मीठी मुस्कान और हमेशा ज़रुरत से आधा-इंच लम्बे बालों वाले चेहरे के aura में. उनके lazy charm, grace, और एक नए writer को दी गयी पूरी इज्ज़त की रौशनी में.
(Pic courtesy – MidDay)
What a lovely piece of article. A lovely tribute to this most wonderful actor. It reads even more heartfelt because of it being written in Hindi. Can vividly imagine how the conversation must have gone about. Glad that the article also mentioned the tv show “Ji, Mantriji”, one of my favorites.
Rest in peace Faroque Sheikh.
बहुत खूबसुरत. बिलकुल फारूख शेख साब और उनके सिनेमा जैसा. हमारे वाले सिनेमा के तो वो ही बच्चन थे
मै शायद इनके बाद वाले era का होउंगा। लेकिन बहुत अच्छी तरह से याद किया गया। disappointment वाला paragraph और अंतिम meeting वाला बड़े प्यारे हैं।
Reblogged this on Bargad… बरगद… and commented:
एक दिन बात चली passion की तो उन्हें याद आया कि अपने ज़िन्दगी में पहली फिल्म शूटिंग जो उन्होंने देखी थी वो थी ‘मुग़ल-ए-आज़म’ की. वो बच्चे ही थे जब उनके पिताजी (जो बंबई में वकील हुआ करते थे) उन्हें ‘प्यार किया तो डरना क्या’ गाने की शूटिंग और शीशमहल दिखाने ले गए थे. उन्होंने थोडा उदास हो के कहा वो एक हद्द थी जिस तक हम कभी नहीं गए.
[…] पूरा यहाँ पढ़ें… […]
Apt.
Sab khatam.
I can’t recollect a single actor from our times who would be adored like him and yet be grounded.
Sab khatam.
वाकई शानदार। पढ़कर मजा आ गया। एक सहज व्यक्तिव का सहज भाव से वर्णन।
Excellent. Grateful thanks for writing this piece,
indeed an awesome writeup… shayad ise mujhe writeup nahi bolna chahiye kyunki ye wo feelings hain jo dobara nahi hongi… ye bhi nahi keh sakte it is end of an era coz Farooque sheikh sir usse bohot upar hain…
sirf ek baat ka afsos ki isme unke career ke ek behtarren show “jeena isi ka naam hai” ka zikr nahi hai…
वरुण,
तुमने मुझे जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठकर सुनाई थी वो कहानी. वो हमारी भी शायद दूसरी या तीसरी ही मुलाकात थी, उतनी लम्बी अौर इत्मीनान वाली तो शायद पहली ही. घंटों तक हम जामा मस्जिद के भीतर बैठे बातें करते रहे थे. वो किरदार जिसके भरम में हम थे उस दिन… तुम रचकर, अौर मैं सुनकर… हम दोनों निश्चित थे कि यह फ़ारुक़ साहेब के लिए ही लिखा गया है.
लेकिन वो फिल्म नहीं बनी.
उसके बाद तुमने अौर कहानियाँ लिखीं. उनमें कुछ की किस्मत शायद ज़्यादा अच्छी भी थी. लेकिन मैं तुम्हारे बुरा मानने का रिस्क लेते हुए भी फिर दुहराऊँगा, कि तुम्हारी सुनाई वो पहली कहानी ही अाज भी मेरी सबसे पसन्दीदा है. उसके भीतर एक अंदरूनी अाभा थी, दिलेरी थी अौर जिसे अंग्रेज़ी में कहते हैं Audacity, वो जैसी उस कहानी में थी वैसी अाजकल मुश्किल से मिलती है. इसीलिए तुमसे हर बार पूछता भी था, कि बाक़ी सब तो ठीक है… लेकिन वो फ़ारुक़ साहेब वाली फ़िल्म कब बनाअोगे.
ये भी अजब था कि तुमको मेरी किताब में शामिल उन्नीस फिल्मों पर लिखे उन्नीस अध्यायों में से जो सबसे पसन्द अाया, वो उनकी ही दिलफ़रेब फिल्म पर था. अौर फिर तुम उनसे वापस भी मिले मेरी ही किताब के ज़रिये. ऐसे देखो तो मैं उनसे कभी नहीं मिला, लेकिन मिला एक प्यारे दोस्त के ज़रिए.
तुम भी देखोगे कि यूँ कुछ फ़ारुक़ साहब हमारी दोस्तियों में चले अाये हैं. अौर फिर यह तो बिल्कुल संयोग नहीं कि यारी-दोस्ती की सबसे प्रामाणिक फ़िल्म हमें उस ‘अरस्तू’ की ही धरोहर है!
I thought I’d lost a role model, but seems you’ve lost a god.
I mean, I loved him. I loved him as an actor for sure, but more than that, I loved him as a personality who was as simple as one has seen. I can see that in your article. I have seen that in almost every article ever written about him. In his TV shows and interviews. Everywhere. I even saw Accident on Hill Road hoping there would be something in the movie since he’s there. But then, it got compensated in Lahore.
All that was remaining was to see him live. Had booked tickets for Tumhari Amrita, for the day he suddenly had to be hospitalized. And when he came back, I couldn’t go for it. Didn’t know won’t be able to see him ever.
First it was Jagjit Singh, and now it’s him. and I don’t really know what was in their personalities. It’s just that there was some magic, which probably will remain there, despite their absence.
I was lucky to have met farouque and Deepti Naval at Bandra when my friend K.Bikram Singh wasmaking his Film “Andhi Gali” what a moment of pride was for–thre greats and me !!!!!!!!!!!!!
what memories of that brief coffee session have you dug out from my past
I was lucky to have met farouque and Deepti Naval at Bandra when my friend K.Bikram Singh wasmaking his Film “Andhi Gali” what a moment of pride was for–three greats and me !!!!!!!!!!!!!
what memories of that brief coffee session have you dug out from my past
[…] Earlier Varun Grover wrote a post आम है, अशर्फियाँ नहीं (click here). And then actor Swara Bhaskar wrote another beautiful post about her memories and working […]
beautifully written..loved it….