SPOILER ALERT
’मसान’ के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है, लिखा जा रहा है, सोचा कि लिखने के लिए कुछ बचा नहीं है, लेकिन इस फ़िल्म ने इतनी सहजता से दिल को छू लिया कि लिखे बिना नहीं रह सकता. लगभग दस दिन हो गए हैं फ़िल्म देखे हुए, लेकिन ना तो ज़हन से उतरी है, ना दिल से. एक अच्छी फ़िल्म, नज़्म, कहानी या किताब की शायद सबसे बड़ी ख़ासियत ही ये होती है कि वो देर तक आप के साथ बनी रहती है. दिनों तक, महीनों तक, सालों तक और कभी-कभी सदियों तक. और ’मसान’ भी इस में कोई अपवाद नहीं है. और यूं भी जिन जज़्बात और मुद्दों को ’मसान’ में दर्शाया गया है, वे सब शाश्वत हैं और आज के संदर्भ में, आज के परिप्रेक्ष्य में रचे गए हैं. और यही बात, इस फ़िल्म को, इस कहानी को, उन किरदारों को और अधिक ख़ास बना देती है. और जिस तरीके से लेखक वरूण ग्रोवर ने हिन्दी-उर्दू के कवियों, शायरों को इस फ़िल्म में याद किया है, वो इस शाश्वतता के पहलू को और अधिक प्रबल करता है.
चार अहम पहलुओं, शाश्वत पहलुओं से बख़ूबी रू–ब-रू करवाती है फ़िल्म. जिज्ञासा, प्रेम, मृत्यु और उम्मीद. ये सभी वो शाश्वत पहलू या जज़्बात हैं ज़िंदगी के, जिनके बिना जीवन लगभग असंभव है. कुछ-कुछ वैसे ही जैसे शाश्वत समय के बिना.
फ़िल्म शुरू ही देवी (रिचा चड्ढा) की जिज्ञासा से, या यूं कहें कि जिज्ञासा शांत करने की कोशिश से होती है. ठीक एक बालिग होते बच्चे की तरह, जिसे बहुत कुछ जानना है और इस जानने की प्रक्रिया में वो समाज के बनाए सही-ग़लत के पैमानों पर ज़्यादा ध्यान नहीं देता है. ये जिज्ञासा बिल्कुल वैसी है, जैसी कभी आदम और हव्वा को हुई होगी, जिस के चलते उन्होंने वो प्रतिबंधित फल चखा था, जिसे चखने का अंजाम हम सब जानते हैं. अब वो सच भी हो सकता है और मिथक भी, लेकिन है एक शाश्वत तथ्य. सदियों से इस और इसी तरह की अनेकानेक जिज्ञासाओं ने इंसान को उत्सुक बनाए रखा है और एक तरह की तरक्की के लिए प्रेरित भी किया है. आज हम जितना भी आगे बढ़ पाए हैं, उस में जिज्ञासा का बहुत बड़ा हाथ है. कुछ ऎसी ही तरक्की देवी भी करना चाहती है. और उस की ये तरक्की किसी भी तरह से भौतिकता से प्रेरित नहीं है. वो बस आगे बढ़ना चाहती है, शारिरिक तौर पर, मानसिक तौर पर, खुले दिमाग से. एक जगह वो अपने पिता विद्याधर पाठक (संजय मिश्रा) को जवाब भी देती है, “जितनी छोटी जगह, उतनी छोटी सोच”. वो इस छोटी सोच से तरक्की चाहती है. अपनी जिज्ञासा को शांत करने के सहारे, अपनी शाश्वत जिज्ञासा को शांत करने के सहारे.
दूसरा शाश्वत जज़्बात, प्रेम, जिसे ’मसान’ ना केवल छूती है, बल्कि उस में सराबोर होकर नाचती है, उत्सव मनाती है. प्रेम, जो जितना जिस्मानी है, दुनियावी है, उतना ही ईमानदार भी है, सच्चा भी है. कहीं कोई छल-कपट नहीं है. खालिस है. और यही खालिस प्रेम, आम तौर पर परिभाषित और दर्शित प्रेम से अलग है. इसीलिए पहुँच पाता है, और छू पाता है, अंतर्मन की उन गहराईयों तक जहाँ तक का रास्ता केवल असल प्रेम को मालूम है. वही असल में केंद्र है, हर एक इंसान का, और प्रेम का यही दृष्टिकोण, दीपक (विक्की कौशल) और शालू (श्वेता त्रिपाठी) का एक-दूसरे के प्रति (दुनिया के एतराज़ को ध्यान में रखते हुए भी), उस प्रेम को दर्शाता है, जो सुबह की ओस की बूंद की तरह साफ़ है, यही साफ़-पाक प्रेम है, जो असल में शाश्वत है.
अगर एक चीज़ है, समय के परे, जो उतनी ही शाश्वत है, और रहेगी तो वो है मृत्यु. और मृत्यु को इतने अलग-अलग दृष्टिकोण से देखा-दिखाया गया है, एक ही फ़िल्म में कि ताज्जुब होता है. एक ओर पियूष (सौरभ चौधरी) आत्महत्या करता है, सिर्फ़ डर के मारे, शर्म के मारे और अनजाने में ही देवी और पाठक की ज़िंदगियाँ दाँव पे लगा जाता है, दूसरी ओर नियति का हस्तक्षेप शालू को इतनी ख़ामोशी से मृत्यु के आग़ोश में ले लेता है कि एक झटका लगता है. गहरा झटका. तीसरा रूप है मृत्यु का, दिन-रात जलती चिताओं का, गंगा के घाट पे. जहाँ मृत्यु सिर्फ़ एक काम है, एक व्यवसाय है और है एक ’पारी’ का खेल. वो खेल जो दिन-रात के हर पहर में खेला जाता है, ठीक एक ज़िंदा आदमी की चलती सांसों की तरह. जब आख़िरी बंधन को खोपड़ी पर बांस मार कर आज़ाद किया जाता है, (जिसे कर्म कांड की भाषा में ’कपाल क्रिया’ कहते हैं), तो मृत्यु बस एक कर्म बन कर रह जाती है. और इसी मृत्यु का चौथा रूप दिखाई देता है, जब झोंटा (निखिल साहनी) एक लम्बा गोता लगा कर वापिस नहीं आता है देर तक. मृत्यु नहीं है उन क्षणों में लेकिन उस की मौजूदगी का एहसास इतना प्रबल है कि पल भर में मृत्यु के शाश्वत होने का एहसास हो जाता है.
महाभारत में जब यक्ष ने युधिष्ठिर से ये प्रश्न किया था कि क्या है जो सबसे हैरत-अंगेज़ है, तो उस ने जवाब दिया था कि सदियों से सब मृत्यु को प्राप्त होते आए हैं, लेकिन फिर भी जब तक जीते हैं, इस तरह से जीते हैं, जैसे अमर हों. मानव-जाति की यही बात सबसे हैरत-अंगेज़ है. और यहीं पर आकर हम अगले शाश्वत जज़्बात से मिलते हैं, उम्मीद, आशा. जिस के सहारे दुनिया तब से चल रही है, जब से ये असल में चल रही है. सब तरह की उम्मीदें, चाहे वो अपनी जन्म-जाति के बंधनों को शिक्षा के ज़रिए तोड़ कर, अपने मनपसंद जीवन-साथी के साथ एक अच्छा जीवन निर्वाह करने की दीपक की उम्मीद हो, या अपना सच्चा प्यार किसी भी तरीके से (घर से भाग कर भी) पा लेने की शालू की उम्मीद हो या फिर सब कुछ बिखर जाने के बाद भी एक नए साथ के साथ एक नया सफ़र शुरू करने की देवी की उम्मीद हो, जिसे अंत में एक नई भोर की तरह की दर्शाया गया है. वो भोर, जो ज़िंदगी, जिज्ञासा, प्रेम, मृत्यु और उम्मीद की ही तरह शाश्वत है.
और भी बहुत से शाश्वत जज़्बात हैं, जिन्हें फ़िल्म बहुत सहजता से पेश करती है. प्रेम के बिछोह से उपजा दर्द, सदियों से हिन्दुस्तान में प्रचलित जाति व्यवस्था, और बंधनों में जीने की देवी की छ्टपटाहट. और वो सब भी यूं घुले-मिले हैं पूरी कहानी में, जैसे आँसुओं में नमक. जो है भी, तक़लीफ़ भी देता है, लेकिन अलग से दिखाई नहीं देता है. इतनी ख़ूबसूरत और ख़ूबसीरत फ़िल्म लिखने और बनाने के लिए लेखक वरूण ग्रोवर, निर्देशक नीरज घायवान और डी.ओ.पी. अविनाश अरूण को गले लगा कर शुक्रिया देने का मन करता है. लेकिन वो फिर कभी सही.
फिलहाल ये एक ही गुज़ारिश है, अगर आपने अभी तक ये फ़िल्म नहीं देखी है, तो कोशिश कर के देखिए. ऎसी फ़िल्में बार-बार नहीं बनती.
– मोहित कटारिया
(Mohit Kataria is an IT engineer by profession, writer & poet by passion, and a Gulzar fan by heart. He is based in Bangalore and can be reached at [kataria dot mohit at gmail dot com] or @hitm0 on twitter)
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मोहित जी, आप का लेख बेहद पसंद आया.
शाश्वत जज़्बात और अमर गंगा मैया. एक ऐसी देवी जो जीवन देती भी है और लेती भी. जिस के किनारे अनाज उगता है तो तीर्थ यात्रियों की बसें पलटकर डूब भी जाती हैं, प्रेम जन्म लेता है तो लाशों की राख धुल भी जाती है. जो धनी युवक से दी गई मूल्यहीन अंगूठी लेती है और ग़रीब अनाथ को अमूल्य उपहार देती है.
Duniya mein jitni cheez jalti hai wo aakhir mein bujhti zaroor hai.
Magar Masaan kamaal ki cheez hai kabhi bujhti nhi kisi sayar ne sahi kaha hai.
“Ek ajeeb dastur hai duniya ka, kabhi rakh nahi hoti masaan jalte-jalte”