भारत के मां, बाप, बेटे, बेटियों, शिक्षकों, छात्रों को एक खुली चिट्ठी
जिस स्कूल में मैं नर्सरी से 12वीं तक पढ़ा हूँ उसके कार्यवाहक व पृष्ठपोषक वह थे जिन्हें अाज राइट विंग, हिन्दु्त्ववादी या अाम भाषा में “संघी” कहा जायेगा. स्कूल की शिक्षाव्यवस्था का सनातन हिंदू संस्कृति से रिश्ता बहुत गहरा था. हमें हिंदी और संस्कृत काफ़ी ज़ोर देकर पढ़ाई गई.
स्कूल के वार्षिकोत्सव का अारम्भ गुरुवन्दना से होकर वादविवाद, सितार, गिटार-वादन, नुक्कड़-नाटक,संस्कृत काव्य पाठ, क़व्वाली और मुशायरा से गुज़र कर सरस्वती वंदना से समापन होता था. हमें सिखाया जाता था कि भारत दुनिया के उन महान समाजों में से है जिसमें सभी के लिए जगह है. पांचवी क्लास में ही मुझे ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का अर्थ ज्ञात था हमारे कड़क और एक किलो वज़नी थप्पड़ वाले संस्कृत सर की बदौलत. छठी क्लास तक मैंने गणित, भौतिकी, रसायन विज्ञान और जीव विज्ञान हिन्दी में पढ़ा. हमारे सोंधी खुशबू वाली स्कूल डायरी में गायत्री मंत्र, संस्कृत काव्य और गीता के चुने हुए हिस्से थे जो मुझे आज भी कंठस्थ हैं. इसके साथ-साथ हम वही इतिहास पढ़ते थे जिसे अब ‘लेफ़्टिस्ट’, ‘एलीटिस्ट’ और ‘स्युडो-सेक्युलर’ कहा जाने लगा है – जो भी उसका अर्थ हो. उसका कुछ कुछ अभी भी सच सा लगता है, और कुछ नहीं.
अंग्रेज़ी के वर्चस्व के इस ज़माने में आज भी हिंदी, संस्कृत और प्राचीन भारत पर मेरा (अधूरा) दखल देखकर मेरे दोस्तबाग इम्प्रेस हो जाते हैं। मैं अपने स्कूल का जितना भी शुक्रिया अदा करूँ कम होगा, जिसने तीन हजार सालों के मानव इतिहास को सहजता से समझने की योग्यता मुझे दी, साथ ही वक़्त के साथ चलना भी सिखाया. मैं जो भी हूँ, अपने उस स्कूल की वजह से हूँ. इसका गर्व है मुझे.
मुझे अाज तक कभी भी ऐसा नहीं लगा कि मेरे स्कूल की शिक्षा ग़लत है. एक बार भी हमें ये नहीं पढ़ाया गया कि भारत से प्यार करने के लिए किसी से से नफ़रत करने की ज़रूरत है. इसका गर्व है मुझे.
मेरे जैसे अनगिनत भारतीय अाज भारत के नागरिक हैं – जिन्हें अपने स्कूल या कालेज पे गर्व है.
भारत के अभिभावक, शिक्षक और छात्रगण, अब समय अा गया है एक निर्णय का – कि जिस दिन हमारे बच्चे पढ़ाई पूरी करके भविष्य के भारत में क़दम रखें तो उन्हें अपने स्कूल पे फ़ख्र होगा तो किस बात का होगा? कितना बड़ा प्लेग्राउन्ड या वी अाइ पी पार्किंग है उसकी? या कितने लाख की फीस है? या किस फिल्मस्टार का बेटा क्लासमेट है? या किस नेता का जिगरी चेयरमैन है?
या फिर अपने शिक्षकों का? हमारे संस्कृत सर, हमारी अंग्रेज़ी मैम, मेरे प्रिंसिपल सर और वो सभी शिक्षक जिनका हमने आदर किया, जिनसे डरे, जिन पर हम फ़िदा हुए, जिनके हम दीवाने रहे, जिनकी हमने पीठ पीछे नकल उतारी और जिन्होंने हमारे कान खींचे. इन शिक्षकों ने हमें केवल विद्या नहीं, जुनून भी दिया. सिर्फ पांच स्टेप्स मेँ सेट थियरी पैराडाॅक्स साबित करने का, या बिना सांस लिये एक मिनट तक रावण के शिवस्तोत्र की अावृत्ति का. मैं जिस प्रोफ़ेशनल इंस्टीट्यूट में गया वहाँ के पेड़ के नीचे बैठकर शिक्षकों ने हमें जुनून दिया छोटे भारतीय शहरों के लिए सस्ता और सेफ रिक्शा बनाने का, या सर्व भारतीय लोटे के अनूठे आकार पर फिदा होने का. हमे एक बार भी ये भनक न पड़ी हम राइट हैं या ले्फ्ट! मास हैँ या एलीटिस्ट!
कभी ऐसा नहीं लगा कि महान कुछ हो रहा है – कभी किसी शिक्षक ने हमें भारत से प्यार करने, देशभक्त बनने या देश की रक्षा करने के लिए नहीं कहा. लेकिन अब मालूम पड़ता है कि जब उन्होंने हमें ब्रह्मगुप्त के चतुर्भुज समीकरण, दिनकर की कविता, रस्किन बॉण्ड और मंटो की कहानियां, भारतीय मलमल की बारीक़ी, बंगाल के टेराकोटा टाइल की सुंदरता या लद्दाख में विश्व की सबसे ऊंची हवाई पट्टी के बारे में बताया और साहिर के फिल्मी गाने गाये, उन्होंने हमारे दिल में चुपके से हमें बताए बिना देशप्रेम की वह तीली लगा दी जो आज भी सुलग रही है.
उस अगन का सबूत नम्बर एक? करोड़ों भारतीय, जो अाज भी भारत में हर नाइन्साफी, मजबूरी, तकलीफ से जूझते हुऐ यहीं जी रहे हैं और जम के जी रहे हैं. सबूत नम्बर दो? वह लाखों भारतीय जो भारत के बाहर भारत के लिये तरसते हुए अपने केबल वाले से देसी चैनल के देने के मुद्दे पे रोज़ झगड़ते हैं!
भारत की शिक्षा अपने अाप में एक सीख है। हजारों वर्षों से भारत में अध्ययन-अध्यापन की बेजोड़ परंपरा रही है. इस परंपरा का केंद्र गुरु और शिष्य हैं. ये यूँ ही नहीं है कि द्रोण, कृप, कपिल, बुद्ध, महावीर, शंकर और नानक आज भी पौराणिक कथाओं और धर्मग्रंथों में हमारे बीच जीते हैं. ये अाखिरकार कुछ भी हों, सबसे पहले ये शिक्षक ही थे जिन्होंने शिष्यों के एक विशाल समूह को प्रेरित किया.
हमारे बचपन के शिक्षक हमें दूसरे भारतीयों के साथ भारत में रहना सिखाते थे। वह दूसरे भारतीय भी ऐसे स्कूल-कॉलेजों से पढ़कर आए थे जहाँ सहजता से निभाई जाने वाली भारतीयता सिखाई गई थी. हम रूड़की से पढ़कर पास होते और चेन्नई में काम करने जाते थे। पंजाबियों से भरी दिल्ली में रह रहे बंगाली लड़के का बेस्टफ्रेंड एक गुजराती लड़का बन जाता था. किसी ऐसे राज्य में जहां कभी नहीं गए वहां के इंजीनियरिंग कॉलेज में भर्ती होने से पहले हम एकबार भी नहीं सोचते थे. कोइ ऐसा हाॅस्टल जहां एक समुदाय गिनती में भारी हो हमे कभी इतना त्रास न देता था जितना अब देता है। क्या बदल गया फिर?
आज बहुत सारे कारनामे हो रहे हैं जिनको सही ठहराने के लिए हमारी प्राचीन परंपरा का उल्लेख किया जाता है.अगर हम केवल शिक्षापरंपरा का उल्लेख करें तो तर्क, युक्ति, सवाल जवाब, डिबेट – इनके बिना वह परंपरा गूंगी गुड़िया रह जाती है जिसके साथ केवल खेल खेला जाता हो। भारत का सबसे पुराना सिलेबस है – वाद और विवाद। भारत की सबसे पुरानी “कोर्सबुक” वेद के सबसे जियाले, रोंगटे खड़े कर देने वाले श्लोक – वह बस सवाल हैं और कुछ नहीं! उपनिषद्, दर्शन, मीमांसा – कहीं भी देखें – वे गुरु और शिष्य के बीच प्रश्नोत्तर के रूप में किए गए संवाद हैं.
सही शिक्षक हमें सही राह दिखाता है. सही रास्ता वही दिखा सकता है जिसे खुद सही रास्ता दिखता हो. विश्व का सबसे प्रतिभाशाली चित्रकार व्याकरण सिखाने में अव्वल फेल होगा! और देशप्रेम का पाठ फिल्ममेकिंग या गणित पढ़ाते हुए बखूबी पढ़ाया जा सकता है, बशर्ते उस गुरू को फिल्म मेकिंग या गणित से प्रेम हो! . इसके लिए देशभक्ति के अलग सिलेबस की जरूरत नहीं है। क्योंकि ये सिलेबस अक्सर वही लोग बनाते हैं जिन्हे अपना उल्लू सीधा करने कि लिये अापके मासूम बच्चे की दरकार है बतौर रिक्रूट।
भारत के अभिभावकों और छात्रों, हमें दिखाने की जरूरत है कि हम अपने देश से उन लोगों के मुक़ाबले ज़्यादा प्यार करते हैं जो देशप्रेम की लवस्टोरी मैं अकेले हीरो बन रहे हैं.
जिस भारत से हम प्यार करते हैं वह मस्त, मुस्कुराता, रंग-बिरंगा, अच्छे खाने की खुशबू से महकता, अच्छे संगीत में झूमता, शरारती लेकिन होशियार बच्चों से भरे क्लासरूम वाला भारत है। उस क्लासरूम में जहां हमारी सिखणी मां और हमारे खोजा पापा पहली बार मिले थे! वो होस्टल जहां नवरात्रा के डान्डिया रास के बाद हम सारी रातजागकर पढते थे! क्या करते – सिलेबस ही इतना प्यारा था!
जिस भारत से हम प्यार करते हैं वह ऐसे शिक्षकों का देश है जो तार तार माहवार पर मीलों चलकर बच्चों को वर्णमाला सिखाते हैं, या नौजवानों को खराद मशीन चलाना या होनहार बच्चियों को पहाड़ लांघना.
जिस भारत से हम प्यार करते हैं वह ऐसे शिक्षकों, शिक्षाविदों, लेखकों, कवियों और गायकों का है जिन्होंने अपनी किताबों, गीतों, कहानियों और कविताओं के जरिए भारतीय छात्रों को दुनिया के हर कोने में पहचान दिलाई है. ये पहचान हम खो बैठे तो हमें कोई नहीं पूछेगा!
जिस भारत से हम प्यार करते हैं वह ऐसे बहुत से संस्थानों से भरा है जो छात्रों को देशप्रेम का दावा करना सिखाए बिना, उन्हें बैंकिग, जेनेटिक रिसर्च, फैशन डिज़ाइन, सांख्यिकी में अव्वल बनाते हैं और वह छात्र देश का नाम रौशन करते हैं।
जिस भारत से हम प्यार करते हैं, उसके अभिभावकों और छात्रों को अधिकार है कि वे खुद निर्णय लैं वे क्या सिलेबस सीखना चाहते हैं और कैसे. यदि कोई ऐसा कॉलेज या स्कूल हो जहां वे जा सकें, इसका मतलब है कि हमारी सारी ग़लतियों, तनावों, गरीबी और असमानता के बावजूद हम सही रास्ते पर हैं.
अाज डर ये है कि हम ये अधिकार खो देंगे. भारत के अभिभावकों और छात्रों, मैं आपसे कहता हूँ कि आप अपनी चुप्पी तोड़ें और बोलना शुरू करें। क्योंकि जब अरसे से चुप बैठा कोई बोलता है तो दुनिया सुनती है.
– दिबाकर बैनर्जी
अमां जबरदस्ती क्यों आवाज़ तेज़ करने की बात करते हैं आप ।
हम भी अंधे नहीं हो गए । गलियों, मोहल्लों में झांकिए ज़रा ।
बिन मतलब की आपके द्वारा फैलाई हुई असहिष्णुता ।
दिखेगी देश में तो हम भी कदम उठा लेंगे ।
आपकी बेहतरीन सोच को हमारा शुक्रिया ।