The header is from one of the tweets of Varun Grover. He has posted a long comment on this post also. Just when we thought that we all agree on one film finally, Varun felt otherwise – Aha, the joy and beauty of cinema! One film but so many things for so many souls. He gives a strong recco for Vishal Bhardwaj’s 7 Khoon Maaf – Poetry, pain, darkness, more than a bunch of crackling performances, and quirks that stab you lovingly. Read on…
‘७ खून माफ’ के बारे में बहुत कुछ कहा जा रहा है. बोरिंग, कच्ची, बचकानी, और ना जाने क्या क्या! इन सब रंग-बिरंगे इल्जामों का जवाब देने में वक्त बर्बाद किये बिना मैं बस यही कहूँगा कि जिसे ‘७ खून माफ’ बोरिंग लगी उसे गज़लें नहीं सुननी चाहिए और ना ही ठंडी-अँधेरी रातों में बाहर निकलना चाहिए. उन लोगों को गज़लें भी बोरिंग लग सकती हैं, और ठंडी अँधेरी रातें बेमतलब.
फिल्म के अंदर का मैं कुछ भी नहीं बताऊँगा…और मुझे भी फिल्म शायद इसलिए बहुत पसंद आई क्यूंकि मैं खुद बहुत बच के रहा था पिछले दिनों फिल्म के बारे में कुछ भी जानने से. अच्छा-बुरा कुछ भी नहीं. तो अगर आप सिर्फ ये जानने के लिए पढ़ रहे हैं कि देखनी है या नहीं – तो अभी कह दिया – देख लो जा के! और बाकी का वापस आकर पढ़ो.
अगर फिर भी कीड़ा है, और अभी पढ़ना ही है तो भी वादा है कि आगे कोई spoiler नहीं है. लेकिन उसके बावजूद – जो भी है, फिल्म से ही जुड़ा हुआ है ना! आगे आपकी श्रद्धा.
मैं यहाँ बस यही बताऊँगा कि फिल्म देख कर मुझे क्या-क्या याद आया. कौन-कौन सी चीज़ें याद आयीं. और वो चीज़ें, यादें, कितनी गहरी हैं. क्यूंकि याद बहुत कुछ आया. सबसे पहले तो याद आया विशाल का गुलज़ार से इतना लंबा रिश्ता. फिल्म शुरू होने के १० मिनट में ही भाषा ने पकड़ लिया. इतनी साफ़, नपी-तुली ज़बान सिर्फ विशाल की फिल्मो में ही कैसे मिलती है? उनकी फिल्म यू.पी. की हो, या बंबई की, या कश्मीर की – सब जगह की ज़बान का वज़न बराबर रहता है. और ‘७ खून माफ’ में तो उन्होंने ‘ग़ालिब’ से लेकर ‘मीर’ तक सबको याद कर लिया है….साथ में गुलज़ार साब के लिखे गाने!
इसके अलावा याद आयीं दो फिल्में जिनका इस-से कोई सीधा लेना-देना नहीं है (फिर भी treat this as a spoiler) – पहली Lars Von Trier की Dogville, और दूसरी ‘साहिब बीबी और गुलाम’. दोनों में प्यार से जुडी उदासी, manipulations, cruelty, अंतहीन खोज, और अधिकतर शांत (या reaction-mode में) central female character है. और इन दोनों फिल्मों का याद एक ही फिल्म देखकर याद आना मेरे हिसाब से बहुत बड़ी उपलब्धि है.
फिर याद आये विशाल के पुराने गुरु Shakespeare और inevitably, मकबूल. फिल्म में बार बार यही लगता है कि विशाल ने रस्किन बोंड की कहानी को शेक्सपियर वाली बोतल में डाल के जमा दिया. किरदारों की भीड़, नौकरों का कहानी में बहुत बड़ा रोल, quirky characters, और लंबे-लंबे dialogue…सब उसी कमरे के थे जिसमें मकबूल लिखी गयी थी. और भी बहुत सी वजहों से मकबूल याद आई…पर यहाँ नहीं बताऊँगा. देखो और सोचो.
इसके अलावा भी बहुत कुछ याद आया – बहुत सी कविताएं, गज़लें, सपने, डर, और गीत. एक बार ‘मेरा नाम जोकर’ भी याद आई.
और अंत में बाहर निकलते हुए, जब आगे चल रहे दो लड़के बोल रहे थे ‘यार ठीक थी…पर कहानी कुछ पूरी नहीं हुयी…’ तो याद आया कि थोड़े दिन पहले कहीं और भी बात हो रही थी (‘दायें या बाएं’ देखने के बाद) – कि हम लोगों ने कहानी को इतना सर पे चढ़ा लिया है कि सिनेमा के बाकी मतलब कभी ढूंढते ही नहीं. परदे पर कई बार एक साथ १०-१२ चीज़ें चल रही होती हैं….और हम लोग सिर्फ ये खोजते रह जाते हैं कि कहानी कहाँ आगे बढ़ी? मुझे तो खैर इसमें कहानी भी हर वक्त आगे बढती हुयी ही दिखी (सिर्फ एक जॉन अब्राहम वाला किस्सा थोड़ा out of place लगा) – लेकिन जो सिर्फ कहानी देख के आ जायेंगे, उनको इस फिल्म का असली प्रसाद नहीं मिलने वाला. एक-एक फ्रेम, एक-एक लफ्ज़, एक-एक किरदार का मतलब है…और वो मतलब गज़ल की तरह ही, कई बार हौले से बोला गया है….कई बार उर्दू या फ़ारसी में, जो हमें समझ तक नहीं आती. उसे दोबारा सुनो, या जोड़-घटा के समझो, या गुज़र जाने दो…किसी अच्छी गज़ल के उस हिस्से की तरह जो समझ आये बिना भी हम गुनगुनाते रहते हैं.
PS – To copy-paste another tweet of his – All you good folks, falling for bad-reviews of 7KM, just one piece of advise – GO WATCH IT! VB IS STILL THE DADDY.