मैंने ग़ज़ल सुनना तब शुरू किया था जब जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल (बड़ी हसीं रात थी – ‘दा लेटेस्ट’ एल्बम se) मैंने किसी gathering में सुनी थी. ये शायद 1993 की बात है. उससे पहले बस ‘निकाह’ की ग़ज़लें सुन कर उनका मज़ाक उडाना काफी अच्छा लगता था. जो 1993 में शुरू हुआ फिर वो कभी रुका ही नहीं. जगजीत सिंह के एलबम्स आते रहे और मैं उनको खरीद खरीद कर कंठस्त करता रहा. Teenagers के intellectual वाले sub-group में काफी प्रचिलित थे जगजीत सिंह तब. माँ पापा ने काफी चिंता व्यक्त की थी क्यूंकि मेरे एक अंकल ने कहा था ‘रूप सुहाना लगता है’ सुनो, ये सब क्या मर्सिया जैसा sound करने वाला सुन रहे हो? खैर, वो अंकल शायद अपने बाल काले करने में लगे हैं आज तक. मैं सुधरा नहीं.
जैसे मेरे फिल्म वाले दोस्त आपस में लडते रहते थे – अमिताभ या विनोद खन्ना? कौन बेटर हैं? या फिर माधुरी या श्रीदेवी? सोनम सबकी undisputed फेवरेट थी मगर किसी ने ये बात पब्लिक नहीं की थी. इसी तरह ग़ज़ल सुनने वाले ‘बाबा’ लोग भी लडते थे – मेहदी हसन, ग़ुलाम अली या जगजीत सिंह? कौन बेस्ट है? (better का आप्शन नहीं था, सब को अपने idol को बेस्ट की पदवी ही चाहिए थी). ग़ुलाम अली और हसन साहब की classical पकड़ पे काफी कुछ कहा जाता था. जगजीत सिंह ने ग़ज़ल को ‘mainstream’ बना दिया – ये बात एक आरोप के तौर पे कही जाती थी. मानो ‘ordinary’ लोगों का ग़ज़लें सुनना जैसे पाप हो.
जब जगजीत सिंह जी थे, उन दिनों काफी लोगों ने ग़ज़लें गयी. लता मंगेशकर, आशा जी, हरिहरन, पंकज उधास, चन्दन दास,विनोद सहगल, सुदीप मुख़र्जी etc. ने खूब अच्छी ग़ज़लें और गीत गा कर ग़ज़लों को जिंदा रखने की खूब कोशिश की. यहाँ तक कि मनोज कुमार के सुपुत्र कुनाल गोस्वामी ने भी ग़ज़ल गायकी में अपने हाथ रवां करने की पुरजोर कोशिश की. इनके एल्बम का नाम ‘सुराही’ था और राज कपूर ने इनको ‘लांच’ किआ था. मैंने आज तक कभी इतना बेसुरा एल्बम नहीं सुना – ये और बात है. मुझे पूरा यकीन है कि मैं कुछ नाम भूल रहा हूँ. ग़ज़लें हमेशा से हिंदी फिल्म में भी शामिल की जाती थी. इन दिनों भी फिल्मों में ग़ज़लें खूब बजी चाहे दिल आशना है में पंकज उधास का ‘किसी ने भी तो न देखा’ गाना या फिर जगजीत सिंह का सरफ़रोश में ग़ज़ल गाना हो, सब काफी मशहूर हुई.
फिर जगजीत सिंह चले गए.
पूरे तीन साल हो जायेंगे अबकी अक्टूबर में उनको गए हुए.
इन तीन सालों में, ग़ज़ल एक genre के रूप में एकदम गायब होती सी दिखी. फिल्मों में भी ग़ज़लों का use काफी कम होता दिखा. शायद आयटम नम्बर्स के शोर में ग़ज़लों का कॉन्टेक्स्ट.
रेडियो को ही ले लीजिये. एक्का दुक्का ‘होशवालों को खबर क्या’ या फिर ‘तुमको देखा तो ये ख्याल आया’ बजाकर एक खानापूर्ती करते हुए सब लोग ग़ज़लें भूलते से जा रहे है. ‘ग़ज़ल सुनने वाली ऑडियंस रेडियो नहीं सुनती’ – ऐसा मुझे बताया गया था कुछ दिन पहले. शायद ये बात सही हो लेकिन हम फिर भूल रहे हैं की ये approach सिर्फ उन लोगों की बात कर रही है जो पहले से ग़ज़लें सुनते हैं. क्या नयी ऑडियंस को ग़ज़लें सुनना पाप है? एक दो रेडियो stations ने कुछ ग़ज़लों के प्रोग्राम्स शुरू किये हैं…तलत अज़ीज़ और रूप कुमार राठोड अलग अलग radio channels पे सुनाई देते हैं, पुरानी ग़ज़लें लोगों के लिए बजाते हुए.
इस दौरान कुछ एल्बम ज़रूर आये, मगर कोई भी एल्बम पॉपुलर नहीं हुआ. ऐसा क्यों? एल्बम ख़राब थे? नहीं. मुझे ऐसा बिलकुल भी नहीं लगता. जो बात इससे भी ज्यादा disturbing है वो ये है कि काफी सारे एल्बम आये और चुपके से चले गए. कितनी बार नयी ग़ज़लें सुनने के लिए एलबम्स ढूंढे मगर जो मिला वो ६ महीने से ज्यादा पुराना निकला. कोई शोर शराबा नहीं, प्रमोशन के नाम पे एक छोटा सा प्रेस रिलीज़ और कुछ भी नहीं. हम सब में से कुछ लोग होंगे जिन्होंने शांति हीरानंद का नाम ज़रूर सुना होगा. अब अगर मैं आपसे पूछु कि आप में से कितने लोगों ने शांति हीरानंद का ग़ज़ल एल्बम सुना है? एल्बम का नाम है ‘जो आज तक न कह सकी’. गए दिनों के कुछ ग़ज़ल एलबम्स आयेे.
श्रेया घोषाल के लेटेस्ट एल्बम का sound काफी फिल्मी था मगर एल्बम बुरा नहीं था.
अमीता परसुराम ने भी कुछ ग़ज़ल एल्बम रिलीज़ किये, जो की उन्होंने खुद लिखे हैं, इनमें से एक ग़ज़ल एल्बम में रेखा भरद्वाज ने भी चाँद ग़ज़लें गयी
सुदीप मुख़र्जी ने काफी कोशिश करी है और हाल ही में गुलज़ार साहब के साथ मिल कर उन्होंने Prithvi थिएटर में कुछ ग़ज़लें present की.
शान्ति हीरानंद का एल्बम ‘जो आज तक न कह सकी’ भी एक अच्छा एल्बम था.
कुछ ग़ज़ल एल्बम जो मेरी समझ में आये, उनके बारे में यहाँ पढ़ सकते हैं आप.
http://almostareview.wordpress.com/2014/06/21/kahun-aur-kya-ghazal-album-review/
http://almostareview.wordpress.com/2014/06/21/ishq-lamhe-feat-ustad-rashid-khan-music-review/
http://almostareview.wordpress.com/2014/03/17/humnasheen-ghazals-by-shreya-ghosal/
http://almostareview.wordpress.com/2012/11/01/jagjitsingh/
http://almostareview.wordpress.com/2013/05/20/phir-bhi-sudeep-1995/
मुझे पूरा यकीन है कि आप के पास कोई एक और एल्बम होगा जिसके बारे में बाकी लोगों को मालूम नहीं होगा
मैं खुद को जगजीत सिंह का काफी बड़ा मुरीद समझता हूँ. मैं ये नहीं मानता कि जगजीत सिंह के बाद ग़ज़लें बनना बंद हो जाएँगी. एक genre किसी भी artist से कहीं ज्यादा बड़ा होता है. उसमें एक ठहराव आ सकता है मगर वो रुकना नहीं चाहिए. शायद ऐसा ही कुछ हुआ था जब नुसरत फ़तेह अली खान साहब का निधन हुआ था. क़व्वाली को ‘fuse’ करना थोडा आसान है इसीलिए क़व्वाली चले जा रही है. पर ग़ज़लों का क्या?
कुछ अक्लमंद लोगों ने ग़ज़लों में फ्यूज़न घुसेड़ने की काफी कोशिश की. मैंने हमेशा ‘purists’ की ‘rigid’ सोच का मज़ाक उड़ाया है. शायद ग़ज़लों को ले कर मैं एक ‘purist’ हूँ. मुझे नहीं लगता कि ग़ज़लों में ज्यादा फ्यूज़न मुमकिन हैं. अगर आपने नहीं सुना है तो हरिहरन का एल्बम ‘काश’ सुनिए. उसकी पहली ग़ज़ल को (जिसका टाइटल ‘काश’ है’) मैं ग़ज़लों में ‘fusion’ के इस्तेमाल का milestone समझता हूँ. हरिहरन ने धुन को नहीं छेड़ा है. बस कहीं कहीं नए instruments ला कर माहौल काफी ग़ज़लनुमा बना दिया है. इससे कुछ भी ज्यादा मेरी समझ के बाहर हो जायेगा और मैं उसे शायद ग़ज़ल न मानू.
आप क्या सोचते हैं?
कोई ग़ज़ल एल्बम recommend करिए, बड़ी उदास है रात ..
– देहाती उर्फ़ @Rohwit