He is a certified boob-yist. Well, i remember he won a contest on twitter where you had to figure out the faces from just the cleavage pics. And he got all six of them spot on! But that story is for some other day. Shivam Sharma masquerades as GhantaGuy on twitter (#FF) and describes himself as “Passionate movie-buff. Not a critic”. Over to him. on Gangs Of Wasseypur.
Even after seeing the movie twice I could not bring myself to review it because there was so much in it, so much to take in all at once and I was not sure from where to start. The following post started out as about some amusing reactions and things that I have observed in the last week regarding Wasseypur. Things that surprise me and make me laugh at the same time. Though there is a lot that I still want to write, it’s still a start. Read on.
‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ को रिलीज़ हुए एक हफ्ता हो चुका है. समीक्षाएं पढ़ी जा चुकी हैं. पिक्चर को पसंद-नापसंद किया जा चुका है. पर वासेपुर अभी भी दिमाग पे छाई हुई है, ज़ाहिर है कि और कुछ हो न हो, ये एक ज़रूरी फिल्म है.
“The Magic of Cinema”.शायद वही.
पर कुछ बातें जो मुझे खटकी हैं वो हैं audience के अलग और कुछ अजीब reaction. मैंने ये फिल्म नागपुर के एक ठसाठस भरे पिक्चर हॉल में देखी थी (गौरतलब है कि नागपुर सलमान खान का गढ़ माना जाता है और ‘दबंग’ के all-India collections में नागपुर सबसे आगे था.) पिक्चर में करीब ७०-८० बार गालियाँ आती हैं. फिल्म सच्ची घटनाओं पर आधारित है और गालियाँ ज़रूरी हैं क्योंकि वासेपुर कि गलियों में घूमने वाले, बात-बात पर कट्टा चलाने वाले जिन लोगों की ये कहानी है वो गालियों का प्रयोग रोज़मर्रा में करते हैं. आप और मैं भी गरमा-गर्मी में इनका प्रयोग करते हैं और कुछ अपने मन में ही देकर सुकून का अनुभव कर लेते हैं.
बहरहाल, फिल्म में जितनी बार भी गालियाँ आयीं, लोग जोर से हँसे. जोकि मुझे खटका क्योंकि ये लोग भी आपस में गालियाँ देते है पर हर बार उसे मज़ाक के तौर पे नहीं लिया जाता और न ही ठहाका मार के हंसा जाता है. फिल्म में भी सब जगह इन्हें मज़ाक के तौर पर नहीं डाला गया. जहाँ हैं वहां सही हैं. पर शायद हमें सच्चाई को मज़ाक में और मज़ाक को सच्चाई की तरह लेने की आदत पड़ गयी है.
ये कहानी उस जगह की है जहाँ की ख़बरें ‘अमर-उजाला’ और ‘दैनिक जागरण’ के क्षेत्रीय पन्नों पर छपती हैं. अर्नब गोस्वामी और राजदीप सरदेसाई के आदी शायद उससे relate न कर पायें और क्योंकि हम उनसे काफी दूर हैं इसीलिए वो गालियाँ हमें या तो हंसाती हैं या discomfort महसूस कराती हैं.
कुछ लोगों का कहना है कि पिक्चर बहुत vulgar और cheap है.
हमें ‘शीला की जवानी’ और ‘मुन्नी बदनाम हुई’ आदि, जोकि सिर्फ अंग प्रदर्शन के लिए बनाये हुए item songs हैं, उनसे कोई आपत्ति नहीं है. अगर कोई शब्द अपने आपको सबसे आसानी से explain करते हैं तो वो है “item song”. साफ़ तौर पर ये वो गाना होता है जिसका प्रयोग सिर्फ लोगों को खींचने के लिए किया जाता है और उसके लिए अधनंगे खुले प्रदर्शन से बेहतर हथकंडा नहीं है. (ऐसे गाने ज़्यादातर उन फिल्मों में होते हैं जिनकी कहानी लोगों को खींचने के लिए काफी नहीं होती. यहाँ मेरा उद्देश्य इन गानों को बनाने वालों के विरोध में नहीं है पर हमारा दोगलापन दर्शाना ज़रूरी है.) जितना बड़ा स्टार उतना बड़ा गाना. और ‘aesthetically shot’ होने के कारण इन्हें public domain में accept कर लिया जाता है और ‘vulgar’ tag तो दूर-दूर तक नहीं दिया जाता.
इस समय मेरे मन में एक गाली ज़रूर आ रही है पर उससे मेरे अभिप्राय पर कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ेगा. छोडिये.
खैर, वासेपुर में कोई item song या kissing scene नहीं है. क्योंकि गाँव और छोटे कस्बों में मुंह पर चूमना कोई आम या ज़रूरी बात नहीं होती. बल्कि, kissing भी एक तरीके से यहाँ western (या french कहें) phenomenon है और पिक्चर में दिखाए गए उस २०-३० साल पहले के fridge की तरह ये भी अभी तक अंदरूनी भारत में पूरी तरह पैठ नहीं कर पाया है.
अगर तब भी आपको फिल्म ‘vulgar’ लगी हो, तो इसका मतलब है के आपका दिमाग स्क्रीन पर चल रहे scene से आगे निकल गया है. निर्देशक और किरदार, और किसी को न सही पर आपको उत्तेजित करने में सफल हो गए हैं और ‘vulgar’ शायद आपके दिमाग में बनी वो image है जिसे अब आप guilty-feeling के तौर पर बाहर उलटी करके निकाल रहे हैं. निकालते रहिये.
शायद कुछ देर बाद आपको अच्छा लगे.
और एक बड़ा मुद्दा उठाया जा रहा है के फिल्म में बदला तो हुआ ही नहीं, सरदार खान बाकी कामों में लग गया और यूँही बिना बदला लिए मर गया. दर्शक को उसके किरदार से कोई sympathy नहीं हुई और इसलिए फिल्म भी मात खा गयी.
जनाब, ये एक सच्ची कहानी पर आधारित है. फिल्म में कोई हीरो नहीं है. मतलब, conventional defintion वाला तो कतई नहीं. सरदार खान निहायती कमीना, शातिर, ठरकी और एक हत्यारा है. राह-चलते आदमी को जो चाक़ू गोद-गोद के मारने में हिचकी नहीं लेता उससे आपको बहुत sympathy तो नहीं होनी चाहिए.
अगर आप ऐसे इंसान को ढूंढ रहे हैं जो किसी महिला की इज्ज़त लुटने से बचाता है, या किसी गाँव को डाकुओं के आतंक से या फिर जिसकी बहन की हत्या हो गयी है और ऐसी ज़बरदस्ती थोपी हुई sympathy आपको चाहिए तो साहब ये गलत फिल्म है आपके लिए. यहाँ कहानीकार आपको ज़बरदस्ती कुछ “feel” करवाने की कोशिश नहीं कर रहा है. ये वो manipulative सिनेमा नहीं है जहाँ हीरो के आंसू निकलते ही पीछे से १०० violin मेघ-मल्हार बजाने लगते हैं और आपकी रुलाई फूट पड़ती है. वो काम आजकल के prime-time TV shows बेहतर कर लेते हैं.
इसे एक new-wave कह लीजिये या फिर सालों से चली आ रही इस तरह की फिल्मों का mainstream हो जाना कह लीजिये कि आज की हर फिल्म आपको manipulate नहीं करती बल्कि काफी कुछ आपकी judgment पर छोडती हैं और वासेपुर इस मामले में मील का पत्थर साबित होगी. आज से कई साल बाद तक इसका नाम याद रखा जायेगा जिसने सही मायने में unconventional और conventional के बीच की रेखा को पूरी तरह मिटा दिया.
वासेपुर भारत की underbelly को दर्शाता एक दर्पण है जिसमें हम झांकते हैं और हमें गंदगी दिखाई देती है. हमें दिखाई देते हैं रेलगाड़ियों का पाखाना साफ़ करते हुए छोटे बच्चे और एक ऐसा नर्क जहाँ इंसान की जान की कीमत कोयले से कम और कौड़ियों के भाव है. शायद इसलिए हम इसे देखकर या तो हँसते हैं या घिनौना समझ कर नज़रंदाज़ करने की कोशिश करते हैं.
ये कहानी बड़े शहरों को जोड़ते हुए किसी चौड़े highway की नहीं है, बल्कि उस highway से उतर के पांच मील अन्दर, इधर-धर दौड़ती हुई पगडंडियों और टूटी सड़कों की कहानी है.
Problem आपको तब होगी जब आप highway पर अपनी air-conditioned कार में बैठे हुए ही अन्दर की तरफ देखेंगे.
थोडा सा धूप में बाहर निकलिए और अन्दर जाकर देखिये..
क्योंकि ये भी ज़रूरी है.