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आम हैं, अशर्फियाँ नहीं

“अरे और लीजिये! आम भी कोई गिन के खाता है क्या? आम है, अशर्फियाँ नहीं.” फारूख शेख साब हमें अपने गुजरात के बगीचे के आम (जो बहुत ही कायदे से छीले और बराबर चौकोरों में काटे गए थे) खाने को कह रहे थे और मुझे लग रहा था जैसे मिर्ज़ा ग़ालिब कलकत्ता में हुगली किनारे बैठ कर, किसी बोर दोपहरी में अपने किसी दोस्त से बात कर रहे हों.

यह हमारी उनके साथ पहली मुलाक़ात थी. हम माने चार लोग – जिस बंडल फिल्म को उन्होंने ना जाने क्यों हाँ कह दिया था, उसका डायरेक्टर, उसके दो संवाद लेखक (मैं और राहुल पटेल), और एक प्रोड्यूसर. हम चारों का कुल जमा experience, उनके बगीचे के बहुत ही मीठे आमों से भी कम रहा होगा लेकिन उतनी इज्ज़त से कभी किसी ने हमें आम नहीं खिलाये थे. और जब मैं यह सोचने लगा कि यह ‘किसी ने’ नहीं, फारुख शेख हैं – ‘कथा’ का वो सुन्दर कमीना बाशु, ‘चश्मे बद्दूर’ का पैर से सिगरेट पकड़ने वाला सिद्धार्थ (Ultimate मिडल क्लास हीरो – थोड़ा शर्मीला, थोड़ा चतुर, थोड़ा sincere, थोड़ा पढ़ाकू, और थोड़ा male-ego से ग्रसित), ‘गरम हवा’ का छोटा बेटा ‘सिकंदर’ (जो कुछ नहीं जीतता), ‘जी मंत्री जी’ का वो बुद्धू-चालू मंत्री, और ‘गमन’ का वो ट्रेजिक हीरो जो चित्रहार में अक्सर उदास से एक गाने में भी मुस्कुराहट की कगार पर दिखता था – तो वो आम और उसके साथ की इज्ज़त बहुत बड़ी हो गयी.

अगले कुछ हफ़्तों में हम उनके घर तीन बार और हाज़िर हुए. हर बार वही सुन्दर कटे आम, और फारुख साब का खुश मिजाज़, जिसमें बहुत से पुराने किस्से और बहुत सी ज़हीन शायरी बात-बेबात निकल आती थी, हमें मिलते रहे. जितनी तमीज़ और तहज़ीब उनके सिनेमा किरदारों में २०-२५ साल पहले दिखती थी वो पूरी की पूरी अब तक मौजूद थी. उनके घर में, उनके आस पास रह के, लगता था किसी और सदी में जी रहे हैं. इत्मीनान और ज्ञान एक साथ, एक ही बन्दे में, और वो भी बंबई की इस कीचड़ से भी बदतर फिल्म इंडस्ट्री में मिलना जादू ही था.

एक दिन बात चली passion की तो उन्हें याद आया कि अपने ज़िन्दगी में पहली फिल्म शूटिंग जो उन्होंने देखी थी वो थी ‘मुग़ल-ए-आज़म’ की. वो बच्चे ही थे जब उनके पिताजी (जो बंबई में वकील हुआ करते थे) उन्हें ‘प्यार किया तो डरना क्या’ गाने की शूटिंग और शीशमहल दिखाने ले गए थे. उन्होंने थोडा उदास हो के कहा वो एक हद्द थी जिस तक हम कभी नहीं गए. फिर एक बार उन्होंने बताया कि कैसे जब अमिताभ बच्चन को पहली फिल्म की तनख्वाह मिली थी तो वो फारुख साब को ‘treat’ देने मरीन ड्राइव ले गए और दोनों ने Gaylord (जो अब भी वहीँ है) में १० रुपये का खाना खाया था. उनके इस किस्से को मैं ध्यान से सुन रहा था और इंतज़ार कर रहा था एक ठंडी आह का या एक bitterness की झलक का – लेकिन ना ये आई ना वो. Honestly, शायद उस दिन मैं थोडा disappoint भी हुआ था. फारुख शेख बचपन से हमारा खुदा था. सईं परांजपे हमारी सलीम-जावेद और मनमोहन देसाई rolled into one, और फारुख शेख हमारे बच्चन. बचपन से घर में ‘साथ साथ’ और ‘बाज़ार’ का combo-pack सुनते-सुनते और दूरदर्शन पे अनेक बार ‘कथा’ देखते-देखते वो दिलो-दिमाग में घुस गए थे. पता नहीं कहाँ से ‘आर्ट और पैरेलेल सिनेमा’ का कीड़ा लग गया था या शौक था दोस्तों को दिखाने का कि हम फ़ालतू फिल्में नहीं देखते. दिक्कत यह थी कि ज्यादातर पैरेलेल फिल्में उदास कर के छोड़ देती थीं. लेकिन जब ‘चश्मे-बद्दूर’ देखी तो लगा कि हाँ ये वाला पैरेलेल सिनेमा ज्यादा मिलता है हमारे temperament से. और इस तरह के, थोड़े हलके लेकिन फिर भी गहरे सिनेमा को फारुख शेख से हसीन brand ambassador नहीं मिल सकता था – भोलेपन और urbane-ness का ज़बरदस्त मिश्रण. ‘किसी से ना कहना’ का होटल हनीमून को होटल हनुमान में बदला देख वो subtle reaction, ‘पीछा करो’ का भयंकर वाला पागलपन, और उमराव जान का अति-ज़हीन नवाब – सब आसानी से कर सकने वाला achievable God.

इसलिए जब उस दिन देखा कि फारूख शेख को अमिताभ बच्चन से कोई गुस्सा नहीं है – ना comparison, ना ही वो हलकी सी टीस ‘वो कहाँ निकल गए, हम कहाँ रह गए’ वाली जो इस शहर में अक्सर टीवी एक्टरों को भी होती है बच्चन साब से – तो मुझे थोड़ा बुरा लगा. वैसा जब आपको किसी फिल्म में अन्याय होने के बाद भी हीरो के अन्दर गुस्सा ना देख के लगता है. लेकिन यही बात थी फारुख शेख की. उनके अन्दर बस acceptance था, और जैसा कि हमने जाना, उनकी दुनिया और बहुत सी दिशाओं में फैली हुयी थी. थियेटर, शायरी, सोशल वर्क, पढना और लिखना, खाना पकाना और खिलाना, और ना जाने कौन-कौन सी खिड़कियाँ होंगी जिनमें हमने झाँका नहीं. वही उनका सबसे बड़ा treasure और achievement था – इत्मीनान और contentment. अपने आप से, अपने career से.

फिल्म की शूटिंग के दौरान उनसे फिर २-३ बार मिलना हुआ. शूटिंग के आखिरी दिन उनसे डरते डरते नंबर माँगा और उन्होंने बड़े दिल से कहा – फोन ज़रूर करना जब कोई अच्छी स्क्रिप्ट हो.

उसके बाद मैंने २ स्क्रिप्ट लिखीं, जिनमें कुल मिलाकर ४ साल लगे. दोनों में ही फारुख शेख साब के अलावा कोई और सोचना मुश्किल था. बल्कि एक स्क्रिप्ट तो निकली ही इस वजह से थी कि मैंने सोचना शुरू किया कि अगर ये किरदार फारुख शेख साब करेंगे तो कैसा होगा. हर सीन, हर संवाद लिखते हुए वो दिमाग में रहे. यह कहना गलत नहीं होगा कि ४ साल मैं अक्सर उनके साथ रहा. २ फिल्में, जो मैंने अपने ज़ेहन में बनायीं, दोनों में वही स्टार थे. ये कहानियां मैं उनको कभी नहीं दिखा पाया. दूसरी वाली शायद अगले महीने ही दिखाता, लेकिन अगला महीना अब अगला ही रहेगा हमेशा.

उनसे आखिरी बार मुलाक़ात हुयी इस साल ‘चश्मे-बद्दूर’ की री-रिलीज़ पर. तो एक तरह से उनसे पहली मुलाक़ात (जब मैंने उन्हें बचपन में टीवी पर देखा होगा) और आखिरी मुलाक़ात दोनों एक ही फिल्म के ज़रिये हुयीं. उनको और दीप्ती नवल को एक साथ सामने से देखने का बहुत बड़ा सपना पूरा हो गया. मिहिर पंड्या की किताब (‘शहर और सिनेमा वाया दिल्ली’) उन्हें देनी थी क्योंकि उसमें ‘चश्मे बद्दूर’ पर एक बड़ा सुन्दर चैप्टर है इसलिए किताब लेकर उनके पास गया. उन्होंने कहा ‘आप घर पहुंचा दीजियेगा, यहाँ तो इधर-उधर हो जायेगी.’ मैंने उन्हें याद दिलाया कि उनकी एक बहुत ही वाहियात फिल्म के डायलौग मैंने लिखे थे. वो बोले ‘ऐसे कैसे याद आएगा यार. मैंने तो बहुत सारी वाहियात फिल्में की हैं!” मैंने कहा ‘नहीं सबसे वाहियात शायद. Accident on Hill Road.’ उसके बाद हँसते हुए उन्होंने एक बार और हाथ मिलाया.

थोड़ी देर बाद हमने बड़े परदे पर ‘चश्मे बद्दूर’ देखी. फारुख शेख और दीप्ती नवल और राकेश बेदी के साथ, एक ही हॉल में. वो दिन, उस दिन भी अद्भुत था, लेकिन अब जब फारुख साब के साथ दुबारा कभी बैठने को नहीं मिलेगा, उस दिन की याद और भारी हो जाती है. अब फारुख साब और रवि बासवानी साथ में देखेंगे जो देखना है. हम रह गए यहीं, उनकी उस मीठी मुस्कान और हमेशा ज़रुरत से आधा-इंच लम्बे बालों वाले चेहरे के aura में. उनके lazy charm, grace, और एक नए writer को दी गयी पूरी इज्ज़त की रौशनी में.

@Varun Grover

(Pic courtesy – MidDay)

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कल चश्मे-बद्दूर देखी. असली वाली. सई परांजपे, फारुक शेख, राकेश बेदी, रवि बासवानी, विनोद नागपाल, सईद जाफरी, और (बे-इन्तहा सुन्दर) दीप्ति नवल वाली. दिल, दिमाग, और सिगरेट वाली. और इतना मज़ा आया जितना पिछले कई सालों में किसी हिंदी कॉमेडी फिल्म में नहीं आया.

बहुत से लोग कहेंगे वो इसलिए क्योंकि ये ईमानदारी से बनायी हुयी सीधी-सादी फिल्म है. लेकिन मेरे हिसाब से इसमें सिर्फ ईमानदारी, सादगी, और nostalgia जैसे कारण उठाकर फिल्म की तारीफ़ करना ज्यादती है. फिल्म में भर भर के craft और writing का जादू है. बहुत ही progressive, contemporary, और smart film है.  2013 में भी. फिल्म का पहला सीन ही – जिसमें एक जलती सिगरेट एक हाथ से दूसरे हाथ से एक पाँव का सफ़र करते हुए तीनों लड़कों को सिंगल टेक में introduce करती है – मेरे लिए हिंदी सिनेमा के इतिहास के सबसे शानदार opening scenes में से एक है. यहाँ से आप सई परांजपे की absurd, intelligent दुनिया में कदम रखते हैं. इस दुनिया में एक अत्यंत शास्त्रीय गीत (काली घोड़ी द्वार खड़ी) एक अत्यंत western visual (लड़की को impress करने के लिए पूरे स्टाइल से अपनी काली मोटरसाइकल पर आता हुआ लड़का) के साथ gel हो जाता है, हीरो-हीरोइन पार्क में बैठकर फिल्मों का मज़ाक उड़ाते हैं कि उनमें हीरो हीरोइन पार्क में गाना कैसे गा लेते हैं और कोई उन्हें टोकता भी नहीं और अगले ही सीन में खुद पार्क में गाना गाते हैं और अंत में टोके जाते हैं, और अरस्तु-ग़ालिब-औरंगजेब संवादों में ऐसी जगहों पर आते हैं कि अगर आपने इतिहास ठीक से पढ़ा है तो आपको सिर्फ इसी बात से ख़ुशी हो जायेगी कि अरस्तु-ग़ालिब-औरंगजेब की जिंदगियों का निचोड़ किसी हिंदी कॉमेडी फिल्म में भी हुआ था.

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बड़े परदे पर देखने से ढेरों नए details भी मिले. लड़कों के कमरे में लगे पोस्टर्स में शबाना आज़मी और सुलक्षना पंडित (सई की पिछली फिल्म ‘स्पर्श’ में सुलक्षना ने शबाना के लिए २ गाने गाये थे), मद्रासी रेस्तौरेंट में सचमुच की तमिल बोलने वाला वेटर, बाईक हमेशा फारूक शेख की किक से ही क्यों स्टार्ट होती है इसका कारण, दीप्ति नवल की आँखों की असली गहराई, और सिगरेट के लहराते धुएं का फिल्म में एक पूरा किरदार होना. ऐसा कहा जा सकता है कि उस कमरे में तीन नहीं, चार दोस्त रहते थे. और एक आज की हालत जहां फिल्म में कोई किरदार अपने सपने के third level पे भी सिगरेट पीने की सोचे तो सेंसर बोर्ड की कुत्तापने से भरी वाहियात warning स्क्रीन पे तैरने लगती है, चश्मे-बद्दूर में सिगरेट का इतना खुला इस्तेमाल अपने आप में एक full-fledged reason है फिल्म देखने का.

लेकिन बात चली है चश्मे-बद्दूर की तो मुझे याद आई मिहिर पांड्या की शानदार किताब ‘शहर और सिनेमा – वाया दिल्ली’ (वाणी प्रकाशन), जिसमें मेरा सबसे पसंदीदा चैप्टर इसी फिल्म पर है. इस किताब पर बहुत दिनों से कुछ लिखने की सोच रहा था. आधा अधूरा लिखा भी है जो अब नीचे चिपकाने जा रहा हूँ. और साथ ही में है इसी किताब से लिया हुआ पूरा लेख चश्मे बद्दूर पर जिसमें मिहिर चश्मे-बद्दूर को ढूंढते ढूंढते तालकटोरा गार्डन तक गए (जहां की टूटी-फ्रूटी खा खा कर फिल्म में फारूक शेख और दीप्ति नवल को प्यार हो जाता है और जहां का वेटर दिबाकर बनर्जी की ओये लक्की लक्की ओये के वेटर का पुरखा लगता है) और एक नयी ही कहानी ढूंढ कर लाये इस फिल्म को समझने की.

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(मिहिर की किताब ‘शहर और सिनेमा वाया दिल्ली’ पर मेरा छोटा लेख)

शहर, सिनेमा, और उन्हें देखने वाला

मुझे ठीक से नहीं पता कि उन्होंने ये क्यों किया लेकिन हाल ही में मेरे पापा ने मुझे कुछ पुरानी तस्वीरें भेजीं. अखबार में फुटबॉलर फर्नांडो टोरेज़ की अपने बच्चे को गोद में उठा कर फुटबॉल खेलते फोटो आई थी. उसको देख कर पापा को मुझे कुछ पुरानी तस्वीरें भेजने का मन किया. इनमें से एक है जिसमें उन्होंने मुझे लगभग उसी तरह से उठाया हुआ है जैसे टोरेज़ ने अपने बच्चे को उठाया है. एक में ४ साल का मैं अपने हिमाचली घर के आंगन में उदास सा खड़ा हूँ. आधी धूप, आधी छाँव के बीच.

इन्हीं तस्वीरों के बीच एक तस्वीर अजब सी है. यह सुंदरनगर (ज़िला मंडी, हिमाचल) की बहुत ऊंचाई से, शायद आसपास की किसी पहाड़ी से, ली गयी फोटो है. फोटो के पीछे उसके खींचे जाने का साल १९७८ लिखा है. इसमें पेड़, सड़क, मंदिर, गुरुद्वारा, सरकारी क्वार्टर, और सामने वाला पहाड़ दिख रहा है. और एक जगह एक गोदाम जैसी दिखने वाली बिल्डिंग के आगे एक पैन से हरा क्रॉस का निशान लगा हुआ है. यह निशान भी १९७८ में ही लगाया गया है. यह निशान वही पिक्चर हॉल है जहाँ मैंने अपनी ज़िंदगी की पहली फिल्में देखीं थी. यह अध-पीली तस्वीर, जिसे किन्हीं इमोशनल कारणों से पापा ने अब तक संभाल कर रखा था अब मुझ तक आ गयी. यह तस्वीर अब मुझे गूगल पर आज का सुंदरनगर ढूँढने पर मजबूर करती है. मैं ढूँढता हूँ और किस्मत से लगभग वैसी ही एक पहाड़ी से ली हुई आज की तस्वीर मिल भी जाती है. लेकिन मन नहीं भरता. अब यही तस्वीर मुझे वापस सुंदरनगर लेकर जायेगी, ऐसा लगता है. १९८५ में सुंदरनगर छोड़ने के बाद पहली बार. जल्द ही.

शहरों से हमारा रिश्ता ऐसा ही होता है. हम उनमें रहते हैं लेकिन उनके छूट जाने के बाद वो हम में रहने लगते हैं. मैंने कहीं पढ़ा था हमें सबसे ज़्यादा सपने १२ से २२ की उमर के बीच के अनुभवों के आते हैं. मतलब छोटे शहर/कसबे छोड़कर आए लोग ज़िंदगी भर बड़े शहरों में रहते हुए उन्हीं पुरानी जगहों के सपने देखते रहते हैं. या कहें तो आधी ज़िंदगी फिर भी उन्हीं जगहों में बिताते हैं. बस वो ज़िंदगी नींद में होती है इसलिए नॉन-लीनियर और कम वैल्यू की होती है. अपनी नयी किताब, ‘शहर और सिनेमा – वाया दिल्ली’ के लिए मिहिर पांड्या ने भी बार बार दिल्ली छोड़ी और फिर वापस उसमें लौटे. दिल्ली से सीधी जुड़ी एक-एक हिंदी फिल्म के ज़रिये शहर में घुसे और निकले. इस किताब में ऐसा उन्होंने १६ बार किया. शहर के रास्ते सिनेमा को देखा और सिनेमा के रास्ते शहर को.

किताब पढते हुए आप देख सकते हैं मिहिर को अपने नॉर्थ-कैम्पस के बरसाती-नुमा घर को ताला मारकर बाहर निकलते हुए. सड़क पर चलते-चलते हर जगह की एक मैंटल तस्वीर खींचते हुए और उस तस्वीर को किसी फिल्म में ढूंढते हुए. आप देख सकते हैं गुडगाँव तरफ के खाली मैदानों में बन रहे नए रिहायशी इलाकों से गुज़रते मिहिर को ‘खोसला का घोंसला’ याद करते हुए. आप देख सकते हैं मिहिर को आइवरी मर्चेंट की ‘हाउसहोल्डर’ में जंतर-मंतर का सीन आते ही कूद पड़ते हुए. मिहिर ने फिल्म में जंतर-मंतर पर फिल्माए गए इस सीन का गहरा symbolism खोजा है. फिल्म में एक जगह पर हमारा हिन्दुस्तानी हीरो जंतर-मंतर में जौगिंग करते हुए एक अमेरिकी बंदे से टकरा जाता है. देश अभी-अभी आज़ाद हुआ है. माहौल नयी उम्मीद का है. दोनों में बात शुरू हो जाती है. हीरो (शशि कपूर) अमेरिकी बंदे अर्नेस्ट को बता रहा है कि आज़ादी के बाद हम कितने आधुनिक हो गए हैं. और अमेरिकी है कि आधुनिकता को भाव दिए बिना हमारे अनंत-ज्ञान, योग, आध्यात्म की तारीफ़ किये जा रहा है. मिहिर का कहना है कि यह सीन जंतर-मंतर की वजह से जादुई हो जाता है क्योंकि – “दिल्ली के ऐन हृदय में बसे जंतर-मंतर को आधुनिकता और परंपरा का सबसे सुन्दर प्रतीक कहा जा सकता है.” और निर्देशक ने “इस विरोधाभासी आदान-प्रदान के लिए” ही ऐसी जगह पर सीन रखा है.

फिर आप देख सकते हैं मिहिर को राजघाट और इण्डिया गेट और संसद भवन और राष्ट्रपति भवन और चांदनी चौक और सरोजिनी नगर और पीतमपुरा को जोड़कर दिल्ली की एक बड़ी तस्वीर बनाते हुए. और उस तस्वीर से दिल्ली के दो बड़े विभाजन – दिल्ली की सत्ता (“काट कलेजा दिल्ली”, “पिछड़े-पिछड़े कह कर हमको खूब उडाये खिल्ली, दिल्ली” वाली सत्ता) और रोज़मर्रा (“सिंगल है कि बैचलर”, “मसकली” वाला रोज़मर्रा) को अलग-अलग फिल्मों के आधार पर छाँटते हुए. आप देख सकते हैं देर रात अपने कम्प्युटर पर अपने गैर-दिल्ली दोस्तों से बतियाते हुए भी मिहिर के अंदर चलते ‘शहर’ को. किताब की भूमिका में ही मिहिर ने लिखा है:

“मैं एक रात आभासी संजाल पर मुम्बई की कुछ आकाशीय तस्वीरें लगाता हूँ. अचानक पहली बारिश पर कविता लिखने वाली एक लड़की जवाब में लिखती है कि यह दुनिया का सबसे शानदार शहर है. मैं रवि वासुदेवन का कहा उसके लिखे के नीचे उतारता हूँ, “बच्चन की देह मुम्बई की लम्बवत रेखाओं के वास्तु से एकमेक हो जाती है.” लड़की चुहल करती है जवाब में, “फिर शाहरुख को कैसे एक्सप्लेन करेंगे?” मैं जानता हूँ, लड़की इन नायकों पर नहीं, उस ऊँची महत्वाकांक्षाओं वाले महानगर पर फ़िदा है. कहती है, “ये शहर नहीं, फलसफा है.””

“यहाँ से शहर को देखो”

मिहिर के ही लिखे एक पुराने लेख (जयदीप वर्मा की ‘हल्ला’ पर) का शीर्षक है – यहाँ से शहर को देखो. यह इस किताब का unused title भी कहा जा सकता है. किताब का हर निबंध एक नई रोशनी में दिल्ली दिखाता है. लेकिन चमत्कार सिर्फ इतना ही नहीं है. मेरे हिसाब से असली उपलब्धि यह है कि किताब दिल्ली के ज़रिये हमारे सिनेमा को भी परखती है. जैसे कि ‘सत्ता का शहर’ हिस्से के एक निबंध, जो कि शिमित अमीन की ‘चक दे इण्डिया’ पर है, में मिहिर दिल्ली के elitist bent को फिल्म में भी देखते हैं और एक झटके में ही इस National Integration Film का खोखलापन सामने ला पटकते हैं.

मिहिर के अनुसार ‘चक दे इण्डिया’ में “दिल्ली के आसपास के इलाकों और ‘ऊँचे’ बैकग्राउंड से आई लड़कियाँ ही फ़िल्म के केन्द्र में हैं. दिल्ली के लिए हाशिए पर रहने वाले इलाकों को जगह तो दी गयी है लेकिन पूरी फ़िल्म में वे किरदार हाशिए पर ही रहे हैं.”

यह एक नयी चाबी है. यह चाबी बिना दिल्ली, दिल्ली की पॉलिटिक्स, और उस पॉलिटिक्स का काइयाँपन जाने नहीं लगेगी. और ऐसी चाबियों से उन्होंने लगभग हर निबंध में शहर-और-सिनेमा के नए ताले खोले हैं.

जैसा कि मैंने कहा मिहिर ने किताब को दो बड़े हिस्सों में बाँटा है. दिल्ली को सत्ता का शहर (६ फिल्में, जिनमें ‘हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी’ और ‘रंग दे बसंती’ शामिल है) और रोज़मर्रा का शहर (१० फिल्में जिनमें ‘ओए लक्की..’, ‘डेल्ही बेली’ और ‘तेरे घर के सामने’ शामिल है) कह कर दो अलग नज़रियों से देखा है. हर फ़िल्म पर निबंध ७ से १० पेज का है और हर निबंध दिल्ली और सिनेमा पर ढेर सारे keen observations से भरा-पूरा है.

इसी किताब का चश्मे-बद्दूर वाला लेख आपकी नज़र हो रहा है.  फिल्म देखकर इसे पढ़ें या इसे पढ़कर फिल्म देखें….दोनों मामलों में आपकी ही जीत होगी.

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चश्मे बद्दूर पर मिहिर का लेख:

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वरुण ग्रोवर 

(Also, many thanks and congratulations to Shiladitya Bora of PVR Director’s Rare for putting his time and passion behind the re-release of such classics.)

The Best Feature Film Category were announced under the Chairpersonship of Ramesh Sippy, Non Feature Film Category under the Chairpersonship of Mike Pandey, and Best Writing on Cinema under the Chairpersonship of Samik Bandhopadhyay.

In the Feature Film Category, 136 eligible entries were distributed between five Regional Juries. The selection process returned to a Two Tier System of Selection. The Chairperson for the Northern Region was Sushma Seth, for the Western Region M.S. Sathyu, for South –I Region T.S. Nagabharna, for the Eastern Region B. Lenin and for South- II Region Shri Pinaki Choudhry.

BEST FEATURE FILM – Kutty Srank (Malayalam)

INDIRA GANDHI AWARD FOR BEST DEBUT FILM OF A DIRECTORLahore (Hindi) – Director : Sanjay Puran Singh Chauhan

AWARD FOR BEST POPULAR FILM PROVIDING WHOLESOME ENTERTAINMENT – 3 Idiots (Hindi)

NARGIS DUTT AWARD FOR BEST FEATURE FILM ON NATIONAL INTEGRATION – Delhi 6 (Hindi)

BEST FILM ON SOCIAL ISSUES – Well Done Abba (Hindi)

BEST CHILDREN’S FILM – Putaani Party (Kannada) & Keshu (Malayalam)

BEST DIRECTION – Abohoman (Bengali) – Rituparno Ghosh

BEST ACTOR – Amitabh Bachchan for Paa (Hindi)

BEST ACTRESS – Ananya Chatterjee for Abohoman (Bengali)

BEST SUPPORTING ACTOR –   Farooque Sheikh for Lahore (Hindi)

BEST SUPPORTING ACTRESS – Arundhati Naag for Paa (Hindi)

BEST CHILD ARTIST – Pasanga (Tamil)

BEST MALE PLAYBACK SINGER – Rupam Islam for Mahanager @ Kolkata (Bengali) –

BEST FEMALE PLAYBACK SINGER – Neelanjana Sarkar for Houseful (Bengali) –

BEST CINEMATOGRAPHY – Anjuli Shukla for Kutty Srank (Malayalam)

BEST SCREENPLAY – (Original) : P.F. Mathews & Harikrishna for Kutty Srank (Malayalam). (Adapted) Kanasemba Kudureyaneri (Kannada), Dialogues : Pandiraj for Pasanga (Tamil)

BEST AUDIOGRAPHY – Location Sound Recordist : Subash Sahoo for Kaminey (Hindi)

Sound Designer : Resool Pookutty for Kerala Varma Pazhassi Raja (Malayalam)

Re-recordist of the final mixed track : Anup Dev for 3 Idiots (Hindi)

BEST EDITING – Arghyakamal Mitra for Abohomaan (Bengali)

BEST PRODUCTION DESIGN –  Samir Chanda for Delhi 6 (Hindi)

BEST COSTUME DESIGNER – Jayakumar for Kutty Srank (Malayalam)

BEST MAKE-UP ARTIST –   Christein Tinsley & Dominie Till for Paa (Hindi)

BEST MUSIC DIRECTION – Music Director (Songs) : Amit Trivedi for Dev D (Hindi),

Music Director (Background Score) : Ilayaraja for Kerala Verma Pazasi Raja

BEST LYRICS – 3 Idiots (Hindi) – Swanand Kirkire “ Behti Hawa Sa Tha Woh……………”

SPECIAL JURY AWARD – Sreekar Prasad for Kaminey (Hindi) & Kutty Srank (Malayalam) & Kerala Varma Pazhassi Raja (Malayalam)

BEST SPECIAL EFFECTS – R. Kamal Kannan for Magadheera (Telugu)

BEST CHOREOGRAPHY – K.Siva Shankar for Magadheera (Telugu)

BEST FEATURE FILM IN EACH OF THE LANGUAGE SPECIFIED IN THE SCHEDULE VIII OF THE CONSTITUTION

BEST ASSAMESE FILM – Basundhara

BEST BENGALI FILM – Abohomaan

BEST HINDI FILM – Paa

BEST KANNADA – Kanasemba Kudureyaneri

BEST KONKANI – Palatadcho Munis

BEST MALAYALAM FILM – Kerala Varma Pazhassi Raja

BEST MARATHI FILM – Natarang

BEST TAMIL FILM – Pasanga

SPECIAL MENTION — Padmapriya

In the Non- Feature Film Category the following awards were announced:

BEST NON-FEATURE FILM – (Sharing) The Postman  and Bilal

BEST DEBUT NON-FEATURE FILM OF A DIRECTOR – (Sharing) Vaishnav Jan Toh – Director : Kaushal Oza and Ekti Kaktaliyo Golpo Director: Tathagata Singha

BEST COMPILATION FILM – Pancham Unmixed

BEST ENVIRONMENT FILM INCLUDING AGRICULTURE – In For Motion

BEST FILM ON SOCIAL ISSUES – Mr. India

SPECIAL JURY AWARD – Kelkkunnundo Child artist : Aasna Aslam

SHORT FICTION FILM – Boond – Director: Abhishek Pathak

BEST CINEMATOGRAPHY – Gaarud Cameraman: Deepu S. Unni

BEST AUDIOGRAPHY – Gaarud – Re-recordist (final mixed track) : Lipika Singh Darai

BEST EDITING – In Camera Editor: Tarun Bhartiya

BEST NARRATION/VOICE OVER – In Camera Best Voice over : Ranjan Palit

SPECIAL MENTION – VILAY – Cinematographer : Nitika Bhagat – Certificate only

In the Best Writing on Cinema Category following awards were announced:

BEST BOOK ON CINEMA : CINEMAA YAANA (Kannada) – Author: Dr. K. Puttaswamy

SPECIAL MENTION – Eka Studioche Atmavrutta – Prabhakar Pendharkar

BEST FILM CRITIC – C.S. Venkiteswaran (Malayalam)