Posts Tagged ‘Deepti Naval’

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कल चश्मे-बद्दूर देखी. असली वाली. सई परांजपे, फारुक शेख, राकेश बेदी, रवि बासवानी, विनोद नागपाल, सईद जाफरी, और (बे-इन्तहा सुन्दर) दीप्ति नवल वाली. दिल, दिमाग, और सिगरेट वाली. और इतना मज़ा आया जितना पिछले कई सालों में किसी हिंदी कॉमेडी फिल्म में नहीं आया.

बहुत से लोग कहेंगे वो इसलिए क्योंकि ये ईमानदारी से बनायी हुयी सीधी-सादी फिल्म है. लेकिन मेरे हिसाब से इसमें सिर्फ ईमानदारी, सादगी, और nostalgia जैसे कारण उठाकर फिल्म की तारीफ़ करना ज्यादती है. फिल्म में भर भर के craft और writing का जादू है. बहुत ही progressive, contemporary, और smart film है.  2013 में भी. फिल्म का पहला सीन ही – जिसमें एक जलती सिगरेट एक हाथ से दूसरे हाथ से एक पाँव का सफ़र करते हुए तीनों लड़कों को सिंगल टेक में introduce करती है – मेरे लिए हिंदी सिनेमा के इतिहास के सबसे शानदार opening scenes में से एक है. यहाँ से आप सई परांजपे की absurd, intelligent दुनिया में कदम रखते हैं. इस दुनिया में एक अत्यंत शास्त्रीय गीत (काली घोड़ी द्वार खड़ी) एक अत्यंत western visual (लड़की को impress करने के लिए पूरे स्टाइल से अपनी काली मोटरसाइकल पर आता हुआ लड़का) के साथ gel हो जाता है, हीरो-हीरोइन पार्क में बैठकर फिल्मों का मज़ाक उड़ाते हैं कि उनमें हीरो हीरोइन पार्क में गाना कैसे गा लेते हैं और कोई उन्हें टोकता भी नहीं और अगले ही सीन में खुद पार्क में गाना गाते हैं और अंत में टोके जाते हैं, और अरस्तु-ग़ालिब-औरंगजेब संवादों में ऐसी जगहों पर आते हैं कि अगर आपने इतिहास ठीक से पढ़ा है तो आपको सिर्फ इसी बात से ख़ुशी हो जायेगी कि अरस्तु-ग़ालिब-औरंगजेब की जिंदगियों का निचोड़ किसी हिंदी कॉमेडी फिल्म में भी हुआ था.

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बड़े परदे पर देखने से ढेरों नए details भी मिले. लड़कों के कमरे में लगे पोस्टर्स में शबाना आज़मी और सुलक्षना पंडित (सई की पिछली फिल्म ‘स्पर्श’ में सुलक्षना ने शबाना के लिए २ गाने गाये थे), मद्रासी रेस्तौरेंट में सचमुच की तमिल बोलने वाला वेटर, बाईक हमेशा फारूक शेख की किक से ही क्यों स्टार्ट होती है इसका कारण, दीप्ति नवल की आँखों की असली गहराई, और सिगरेट के लहराते धुएं का फिल्म में एक पूरा किरदार होना. ऐसा कहा जा सकता है कि उस कमरे में तीन नहीं, चार दोस्त रहते थे. और एक आज की हालत जहां फिल्म में कोई किरदार अपने सपने के third level पे भी सिगरेट पीने की सोचे तो सेंसर बोर्ड की कुत्तापने से भरी वाहियात warning स्क्रीन पे तैरने लगती है, चश्मे-बद्दूर में सिगरेट का इतना खुला इस्तेमाल अपने आप में एक full-fledged reason है फिल्म देखने का.

लेकिन बात चली है चश्मे-बद्दूर की तो मुझे याद आई मिहिर पांड्या की शानदार किताब ‘शहर और सिनेमा – वाया दिल्ली’ (वाणी प्रकाशन), जिसमें मेरा सबसे पसंदीदा चैप्टर इसी फिल्म पर है. इस किताब पर बहुत दिनों से कुछ लिखने की सोच रहा था. आधा अधूरा लिखा भी है जो अब नीचे चिपकाने जा रहा हूँ. और साथ ही में है इसी किताब से लिया हुआ पूरा लेख चश्मे बद्दूर पर जिसमें मिहिर चश्मे-बद्दूर को ढूंढते ढूंढते तालकटोरा गार्डन तक गए (जहां की टूटी-फ्रूटी खा खा कर फिल्म में फारूक शेख और दीप्ति नवल को प्यार हो जाता है और जहां का वेटर दिबाकर बनर्जी की ओये लक्की लक्की ओये के वेटर का पुरखा लगता है) और एक नयी ही कहानी ढूंढ कर लाये इस फिल्म को समझने की.

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(मिहिर की किताब ‘शहर और सिनेमा वाया दिल्ली’ पर मेरा छोटा लेख)

शहर, सिनेमा, और उन्हें देखने वाला

मुझे ठीक से नहीं पता कि उन्होंने ये क्यों किया लेकिन हाल ही में मेरे पापा ने मुझे कुछ पुरानी तस्वीरें भेजीं. अखबार में फुटबॉलर फर्नांडो टोरेज़ की अपने बच्चे को गोद में उठा कर फुटबॉल खेलते फोटो आई थी. उसको देख कर पापा को मुझे कुछ पुरानी तस्वीरें भेजने का मन किया. इनमें से एक है जिसमें उन्होंने मुझे लगभग उसी तरह से उठाया हुआ है जैसे टोरेज़ ने अपने बच्चे को उठाया है. एक में ४ साल का मैं अपने हिमाचली घर के आंगन में उदास सा खड़ा हूँ. आधी धूप, आधी छाँव के बीच.

इन्हीं तस्वीरों के बीच एक तस्वीर अजब सी है. यह सुंदरनगर (ज़िला मंडी, हिमाचल) की बहुत ऊंचाई से, शायद आसपास की किसी पहाड़ी से, ली गयी फोटो है. फोटो के पीछे उसके खींचे जाने का साल १९७८ लिखा है. इसमें पेड़, सड़क, मंदिर, गुरुद्वारा, सरकारी क्वार्टर, और सामने वाला पहाड़ दिख रहा है. और एक जगह एक गोदाम जैसी दिखने वाली बिल्डिंग के आगे एक पैन से हरा क्रॉस का निशान लगा हुआ है. यह निशान भी १९७८ में ही लगाया गया है. यह निशान वही पिक्चर हॉल है जहाँ मैंने अपनी ज़िंदगी की पहली फिल्में देखीं थी. यह अध-पीली तस्वीर, जिसे किन्हीं इमोशनल कारणों से पापा ने अब तक संभाल कर रखा था अब मुझ तक आ गयी. यह तस्वीर अब मुझे गूगल पर आज का सुंदरनगर ढूँढने पर मजबूर करती है. मैं ढूँढता हूँ और किस्मत से लगभग वैसी ही एक पहाड़ी से ली हुई आज की तस्वीर मिल भी जाती है. लेकिन मन नहीं भरता. अब यही तस्वीर मुझे वापस सुंदरनगर लेकर जायेगी, ऐसा लगता है. १९८५ में सुंदरनगर छोड़ने के बाद पहली बार. जल्द ही.

शहरों से हमारा रिश्ता ऐसा ही होता है. हम उनमें रहते हैं लेकिन उनके छूट जाने के बाद वो हम में रहने लगते हैं. मैंने कहीं पढ़ा था हमें सबसे ज़्यादा सपने १२ से २२ की उमर के बीच के अनुभवों के आते हैं. मतलब छोटे शहर/कसबे छोड़कर आए लोग ज़िंदगी भर बड़े शहरों में रहते हुए उन्हीं पुरानी जगहों के सपने देखते रहते हैं. या कहें तो आधी ज़िंदगी फिर भी उन्हीं जगहों में बिताते हैं. बस वो ज़िंदगी नींद में होती है इसलिए नॉन-लीनियर और कम वैल्यू की होती है. अपनी नयी किताब, ‘शहर और सिनेमा – वाया दिल्ली’ के लिए मिहिर पांड्या ने भी बार बार दिल्ली छोड़ी और फिर वापस उसमें लौटे. दिल्ली से सीधी जुड़ी एक-एक हिंदी फिल्म के ज़रिये शहर में घुसे और निकले. इस किताब में ऐसा उन्होंने १६ बार किया. शहर के रास्ते सिनेमा को देखा और सिनेमा के रास्ते शहर को.

किताब पढते हुए आप देख सकते हैं मिहिर को अपने नॉर्थ-कैम्पस के बरसाती-नुमा घर को ताला मारकर बाहर निकलते हुए. सड़क पर चलते-चलते हर जगह की एक मैंटल तस्वीर खींचते हुए और उस तस्वीर को किसी फिल्म में ढूंढते हुए. आप देख सकते हैं गुडगाँव तरफ के खाली मैदानों में बन रहे नए रिहायशी इलाकों से गुज़रते मिहिर को ‘खोसला का घोंसला’ याद करते हुए. आप देख सकते हैं मिहिर को आइवरी मर्चेंट की ‘हाउसहोल्डर’ में जंतर-मंतर का सीन आते ही कूद पड़ते हुए. मिहिर ने फिल्म में जंतर-मंतर पर फिल्माए गए इस सीन का गहरा symbolism खोजा है. फिल्म में एक जगह पर हमारा हिन्दुस्तानी हीरो जंतर-मंतर में जौगिंग करते हुए एक अमेरिकी बंदे से टकरा जाता है. देश अभी-अभी आज़ाद हुआ है. माहौल नयी उम्मीद का है. दोनों में बात शुरू हो जाती है. हीरो (शशि कपूर) अमेरिकी बंदे अर्नेस्ट को बता रहा है कि आज़ादी के बाद हम कितने आधुनिक हो गए हैं. और अमेरिकी है कि आधुनिकता को भाव दिए बिना हमारे अनंत-ज्ञान, योग, आध्यात्म की तारीफ़ किये जा रहा है. मिहिर का कहना है कि यह सीन जंतर-मंतर की वजह से जादुई हो जाता है क्योंकि – “दिल्ली के ऐन हृदय में बसे जंतर-मंतर को आधुनिकता और परंपरा का सबसे सुन्दर प्रतीक कहा जा सकता है.” और निर्देशक ने “इस विरोधाभासी आदान-प्रदान के लिए” ही ऐसी जगह पर सीन रखा है.

फिर आप देख सकते हैं मिहिर को राजघाट और इण्डिया गेट और संसद भवन और राष्ट्रपति भवन और चांदनी चौक और सरोजिनी नगर और पीतमपुरा को जोड़कर दिल्ली की एक बड़ी तस्वीर बनाते हुए. और उस तस्वीर से दिल्ली के दो बड़े विभाजन – दिल्ली की सत्ता (“काट कलेजा दिल्ली”, “पिछड़े-पिछड़े कह कर हमको खूब उडाये खिल्ली, दिल्ली” वाली सत्ता) और रोज़मर्रा (“सिंगल है कि बैचलर”, “मसकली” वाला रोज़मर्रा) को अलग-अलग फिल्मों के आधार पर छाँटते हुए. आप देख सकते हैं देर रात अपने कम्प्युटर पर अपने गैर-दिल्ली दोस्तों से बतियाते हुए भी मिहिर के अंदर चलते ‘शहर’ को. किताब की भूमिका में ही मिहिर ने लिखा है:

“मैं एक रात आभासी संजाल पर मुम्बई की कुछ आकाशीय तस्वीरें लगाता हूँ. अचानक पहली बारिश पर कविता लिखने वाली एक लड़की जवाब में लिखती है कि यह दुनिया का सबसे शानदार शहर है. मैं रवि वासुदेवन का कहा उसके लिखे के नीचे उतारता हूँ, “बच्चन की देह मुम्बई की लम्बवत रेखाओं के वास्तु से एकमेक हो जाती है.” लड़की चुहल करती है जवाब में, “फिर शाहरुख को कैसे एक्सप्लेन करेंगे?” मैं जानता हूँ, लड़की इन नायकों पर नहीं, उस ऊँची महत्वाकांक्षाओं वाले महानगर पर फ़िदा है. कहती है, “ये शहर नहीं, फलसफा है.””

“यहाँ से शहर को देखो”

मिहिर के ही लिखे एक पुराने लेख (जयदीप वर्मा की ‘हल्ला’ पर) का शीर्षक है – यहाँ से शहर को देखो. यह इस किताब का unused title भी कहा जा सकता है. किताब का हर निबंध एक नई रोशनी में दिल्ली दिखाता है. लेकिन चमत्कार सिर्फ इतना ही नहीं है. मेरे हिसाब से असली उपलब्धि यह है कि किताब दिल्ली के ज़रिये हमारे सिनेमा को भी परखती है. जैसे कि ‘सत्ता का शहर’ हिस्से के एक निबंध, जो कि शिमित अमीन की ‘चक दे इण्डिया’ पर है, में मिहिर दिल्ली के elitist bent को फिल्म में भी देखते हैं और एक झटके में ही इस National Integration Film का खोखलापन सामने ला पटकते हैं.

मिहिर के अनुसार ‘चक दे इण्डिया’ में “दिल्ली के आसपास के इलाकों और ‘ऊँचे’ बैकग्राउंड से आई लड़कियाँ ही फ़िल्म के केन्द्र में हैं. दिल्ली के लिए हाशिए पर रहने वाले इलाकों को जगह तो दी गयी है लेकिन पूरी फ़िल्म में वे किरदार हाशिए पर ही रहे हैं.”

यह एक नयी चाबी है. यह चाबी बिना दिल्ली, दिल्ली की पॉलिटिक्स, और उस पॉलिटिक्स का काइयाँपन जाने नहीं लगेगी. और ऐसी चाबियों से उन्होंने लगभग हर निबंध में शहर-और-सिनेमा के नए ताले खोले हैं.

जैसा कि मैंने कहा मिहिर ने किताब को दो बड़े हिस्सों में बाँटा है. दिल्ली को सत्ता का शहर (६ फिल्में, जिनमें ‘हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी’ और ‘रंग दे बसंती’ शामिल है) और रोज़मर्रा का शहर (१० फिल्में जिनमें ‘ओए लक्की..’, ‘डेल्ही बेली’ और ‘तेरे घर के सामने’ शामिल है) कह कर दो अलग नज़रियों से देखा है. हर फ़िल्म पर निबंध ७ से १० पेज का है और हर निबंध दिल्ली और सिनेमा पर ढेर सारे keen observations से भरा-पूरा है.

इसी किताब का चश्मे-बद्दूर वाला लेख आपकी नज़र हो रहा है.  फिल्म देखकर इसे पढ़ें या इसे पढ़कर फिल्म देखें….दोनों मामलों में आपकी ही जीत होगी.

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चश्मे बद्दूर पर मिहिर का लेख:

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वरुण ग्रोवर 

(Also, many thanks and congratulations to Shiladitya Bora of PVR Director’s Rare for putting his time and passion behind the re-release of such classics.)

Well, he can shout out Meri Marzi! Fair enough. But do watch the videos in this post. The first one is a trailer of his new film Memories in March. The film is directed by Sanjay Nag and stars Rituparno Ghosh, Deepti Naval and Raima Sen.

To quote from the official release, “Written by Rituparno, Memories in March unspools the story of a bereaved mother who comes to Kolkata to collect her son’s ashes. She is Arati Mishra, an art curator who lives in Delhi. Through his friends and colleagues, she discovers that they knew him in ways different from the way she knew him as his mother.”

Seems like Memories In March is Hazar Chaurasia Ki Maa, just replace Naxalism with sexuality. But from the trailer it feels like Rituparno Ghosh might have killed the film with his acting. Because he is just playing himself.

A filmmaker who knows how to explore that intimate space in a relationship so bloody well, and someone who has done it so many times, why this acting keeda suddenly ? Mr Ghosh, you can do better.

The second clip is from another bengali film titled Just Another Love Story (Arekti Premer Galpo). Directed by Kaushik Ganguly, it’s about a filmmaker Abhiroop Sen (played by Ghosh) who makes a documentary about Chapal Bhaduri, the legendary jatra (Bengali folk theatre) actor who spent his entire career playing female roles on stage, primarily as Goddess Shitala. Thus begins a journey where director and subject learn from one another – on the one hand is Bhaduri (playing himself) who was a closeted gay for fear of social ostracism but was openly accepted as a cross-dressing actor, and on the other is the modern urban filmmaker who is open about his sexuality but is still negotiating his gender identity.

The film stars Rituparno Ghosh, Raima Sen, Jishu Sengupta, Indraneil Sengupta and Chapal Bhaduri.

And click here to read Variety’s review of the film and more about Ghosh’s acting debut.

We haven’t seen either of the films and may be it’s completely wrong to judge his acting just on the basis on the trailers. But then,  if the reverse is true, we will write the apology post in big and bold font too.

Love is not about finding someone who will make you feel complete….but having someone with whom you can share your incompleteness….Thats Do Paise ki Dhoop, Chaar Aane Ki Baarish, Deepti Naval’s directorial debut.

The film has Rajit Kapoor and Deepti’s best friend Manisha Koirala in lead roles and it deals with the bonding between two unlikely and unusual person. The buzz is that Rajit potrays a gay character in the film. Deepti is busy promoting her film at the ongoing Cannes Film Festival. Though not much is known about the film but here is a sneak peek…two new pics of the film. With such a Gulzar-ish title and Deepti at director’s chair, we are looking forward to it.

do paise ki dhoop new

do paise ki dhoop new 2

deepti naval filmThis is the first still from Deepti Naval’s directorial debut – Do Paise ki Dhoop, Chaar Aane ki baarish. Wow, what a name! Sounds straight from Gulzaarsaab’s diary. And Deepti making her debut with this…we are waiting. 

The film has Rajit Kapoor and Deepti’s best friend Manisha Koirala in lead roles. The film deals with the bonding between two unlikely and unusual person. And the dope is that Rajit kapoor plays a gay character in the film. Deepti is going to promote her film at the Cannes film festival. Manisha will also be there to lend her support.